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________________ १७२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे मणजोगिभंगो । देवगदि०४ जह० अज० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । २६५. सम्मामि० धुविगाणं ज० जह० एग०, उक्क. अंतो० | अज. जह० एग०, उक्क० चत्तारिसमयं । सेसाणं जह० अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । २६६. सण्णीसु पंचणाणा दंडओ जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३ दंडओ जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० अंतो०, उक्क० बेछावढि० देसू० । अहक० जह० णत्थि अंतरं। अज० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी दे० । इत्थि० जह० मिच्छ०भंगो । अज० जह० एग०, उक्क० ओघं । णवूसगदंडओ बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ यहाँ ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध तीन गतिके प्रथम समयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ जीवोंके सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है और इस जघन्य प्रदेशबन्धके समय अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। तीन आयओंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है, यह स्पष्ट ही है। देवगति चतुष्कका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध भवके प्रथम समयमें सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। किन्तु ये अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त कहा है। २६५. सम्यग्मिथ्यात्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—यहाँ घोलमान जघन्य योगसे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका मूलमें कहे अनुसार अन्तरकाल कहा है। शेष प्रकृतियाँ एक तो अनवबन्धिनी हैं और दूसरे इनका जघन्य योगसे जघन्य प्रदेशबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। २६६. संज्ञियोंमें पाँच ज्ञनावरणदण्डकके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन दण्डकके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर प्रमाण है। आठ कषायोंके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशबन्धका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। नपुंसकवेददण्डकका भङ्ग ओघके समान है । इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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