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________________ १६२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे २५५. मणपज० असाद०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी दे। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । देवाउ ० उक्कस्सभंगो। सेसाणं जह० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं दे० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं संजदा० । एवं चेव सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद० । णवरिधुविय-तित्थ०' अज० जह० एग०, उक्क० चत्तारिस० । तेतीस सागर काल तक इनका बन्ध नही होता; इसलिए यहाँ इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। पञ्चेन्द्रियजाति आदिका एक समयके अन्तरसे जघन्य प्रदेशबन्ध सम्भव है और उपशमणिमें अन्तर्मुहूर्त तक इनका बन्ध न हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जपन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। आहारकद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध आयुबन्धके साथ घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण कहा है। तथा एक समयके लिये बीच में जघन्य प्रदेशबन्ध होने पर अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है और साधिक तेतीस सागर तक आहारकद्विकका बन्ध न हो यह भी सम्भव है, इसलिये इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टिमें यह अन्तर प्ररूपणा इसी प्रकार घटित कर लेनी चाहिए। ___ २५५. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर अशुभ और अयशःकीर्तिके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है। देवायुका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। न्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुंहत है। इसी प्रकार संयत जीवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियों और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। विशेषार्थ—यहाँ असातावेदनीय आदिका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है। यह सम्भव है कि इस प्रकारका योग एक समयके अन्तरसे हो और मनःपर्ययज्ञानके उत्कृष्ट कालके भीतर प्रारम्भमें और अन्तमें हो मध्यमें न हो, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है । तथा इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध भी एक समयके अन्तरसे सम्भव है और छठेसे आगेके गुणस्थानोंमें जाकर तथा वहाँ से लौटकर छठे गुणस्थान तक आनेमें लगनेवाले अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्व कोटिका कुछ कम विभागप्रमाण होता है। वह अन्तर यहाँ भी सम्भव है, इसलिए यहाँ इसका भङ्ग उत्कृष्टके समान कहा है। शेष प्रकृतियोंके १. ता०प्रतौ 'धुवियतेथ० (?) अज०' आ०प्रती 'धुवियतेथ० अजः' इति पादः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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