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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे २५०. अवगदवे० सव्वपगदीणं जह० अज० ज० ए०, उ० अंतो। २५१. कोधकसा० पंचणा०-सत्तदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचंत० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० एग० । णिद्दा-पयलादोवेदणी०-णवणोक०-तिण्णिगदिपंचजादि-तिण्णिसरीर-छस्संठा०-ओरा० अंगो०-छस्संघ० वण्ण०४ - तिण्णिआणु०-अगु०४. आदाउज्जो'-दोविहा०-तसादिदसयुग-णिमि०-तित्थ०-दोगो० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० ए०, उक० अंतो० । दोआउ० जह० अज० णत्थि अंतरं । दोआउ०सूचना की है । देवगतिचतुष्कके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी अन्यतर अट्ठाईस प्रकृतियोंके साथ आठ प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला असंज्ञी नपुंसक जीव होता है। यतः यह आयुबन्धके समय ही सम्भव है, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण कहा है। तथा इनका बन्ध एक समयके अन्तरसे भी सम्भव है और अनन्त कालके अन्तरसे भी सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालप्रमाण कहा है । औदारिकशरीर आदि तीन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी यथायोग्य ज्ञानावरणके समान होनेसे इनके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल ज्ञानावरणके समान कहा है। तथा इनका नपंसकवेदी जीवोंमें कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम एक पूर्वकोटिके अन्तरसे बन्ध सम्भव है,इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। नपुंसकोंमें तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध नरकमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सम्भव है, इसलिए इसके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इसके जघन्य प्रदेशबन्धके समय अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता, इसलिए इसके अजघन्य प्रदेशवन्धका जघन्य अन्तर तो एक समय कहा है और तीथङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला जो नपुंसकवेदी मनुष्य द्वितीयादि नरकों में उत्पन्न होता है, उसके अन्तर्मुहूर्त कालतक तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता; इसलिए यहाँ इसके अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। २५०. अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ घोलमान जघन्य योगसे जघन्य प्रदेशबन्ध सम्भव होनेसे जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। मात्र अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपशान्तमोहमें ले जाकर प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त नहीं है। २५१. क्रोधकषायमें पाँच ज्ञानावरण, सात दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और पाँच अन्तरायके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । निद्रा, प्रचला, दो वेदनीय, नौ नोकषाय, तीन गति, पाँच जाति, तीन शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल, निर्माण, तीर्थङ्कर और दो गोत्रके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो आयुओंके जघन्य और भजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। दो आयु और आहारकद्विकका भङ्ग मनोयोगी 1. ता.प्रतौ 'तिण्णिमाणु०५ (१) भगु०४ भादावुजो' इति पास। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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