SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अणु० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी० [देसूणा । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोगदेवाउ०-आहारस०-आहार-अंगो०थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतोमु० । एवं संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०।].. अन्तराणगमो २४८. ...कस्सभंगो । देवगदि०४ जह० णत्थि अंतरं । अज. जह० एग०, उक० तेत्तीसं सादि० । एइंदियदंडओ उक्कस्सभंगो । एदाणं दंडगाणं उकस्साणुकस्सबंधातो विसेसो। जहण्णपदेसबंधंतरं जह० अंतो० । सेसं पुरिसं । तित्थ० ओघं । २४९. णqसगे धुवियाणं [जह० ] जह. खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० असंखेंजा लोगा। अज० जह० उक्क० ए० । थीणगिद्धि०३ दंडओ' जह० णाणा०मंगो। अज० अणुक्कस्सभंगो । सादासाद०-पंचणोक०-पंचिंदि०-समचदु०-पर-उस्सा०-पसत्थ०अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, देवायु, आहारकशरीर, आहारकशरीर आङ्गोपाङ्ग, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में जानना चाहिये। विशेषार्थ-मनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, इसलिए इसमें पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । सातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, यह स्पष्ट ही है। संयत आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ यहाँ गिनाई हैं उनका उत्कृष्ट काल भी कुछ कम एक पूर्वकोटि है और मनःपर्ययज्ञानके समान ही इन मार्गणाओंमें प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए इनकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। अन्तरानुगम २४८.............."उत्कृष्टके समान भङ्ग है। देवगतिचतुष्कके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । एकेन्द्रियदण्डकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इन दण्डकोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धसे विशेष जानना चाहिये । जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष पुरुषवेदके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। २४९. नपुंसकवेदी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। स्त्यानगृद्धि तीन दण्डकके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्र २. तातौ 'पुव्वकोडिदे। [अत्र ताडपत्रचतुष्टयं विनष्टम्............इति निर्दिष्टम् । आ. प्रतावपि १८३, १८४, १८५, १८६, संख्यावितताडपत्राणि विनष्टानीति सूचना वर्तते । १. आ प्रती उक्क० थीणगिदिदंडो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy