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________________ अंतरपरूवणा १६१. सामाइ०-छेदो० घादि०४-गोद० जह० अज० णत्थि अंतरं । वेद०. आउ०-णामा० मणपजवभंगो । णवरि वेद०-णामा० अज० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । परिहार०-संजदासंजदा० घादि०४-गोद० जह० अज० णत्थि अंतरं । सेसाणं सामाइयभंगो । णवरि परिहार० धादि०४ अज० एग० । असंजदे घादि०४ नह० अज० णत्थि अंतरं । सेसाणं कम्माणं णबुंसगभंगो। १६२. किण्णाए घादि०४ जह० जह• एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । अज. कम विभाग प्रमाण है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें भी चार घातिकर्म और गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकणिमें अपनी व्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है,इसलिए यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । मनःपर्ययज्ञानी जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण कर यदि मरता है तो उसके मनःपर्ययज्ञान नहीं रहता|अतएव मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें उक्त पाँचों कर्मों के अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल उपशमश्रेणि परआरोहण और अवरोहणकी अपेक्षा ही सम्भव है । यतः उपशान्तमोहका स्वस्थानकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः यहाँ पाँचों कोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । मनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट अवस्थिति काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। किसी जीवने मनःपर्ययज्ञानके सद्भावमें एक समयके अन्तरसे वेदनीय और नामकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध किया और किसीने मनःपर्ययज्ञानके कालके प्रारम्भ और अन्त में इनका जघन्य अनुभागबन्ध किया और मध्यमें अजघन्य अनुभागबन्ध करता रहा,तो यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि उपलब्ध होता है। यही कारण है कि यह उक्त प्रमाण कहा है। ओघसे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त घटित करके बतला आये हैं,वह यहाँ भी सम्भव है, इसलिए यह अोधके समान कहा है । शेष कथन सुगम है। १६१. सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्र कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। वेदनीय, आयु और नामकर्मका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि वेदनीय और नामकर्मके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। परिहारविशुद्धि संयत और संयतासंयत जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । शेष कर्मोंका भङ्ग सामायिक संयत जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें चार घाति कर्मोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। असंयत जीवों में चार घातिकमों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तरकाल नहीं है । शेष कर्मोंका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंको उपशान्तमोह गुणस्थानकी प्राप्ति न होनेसे इनमें वेदनीय और नामकर्मके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कष्ट अन्तर चार समय कहा है। परिहारविशुद्धि संयत जीवों में चार घातिकर्मोके जघन्य अनुभागका बन्ध सर्वविशुद्धि अवस्थाके होनेपर एक समय तक होता है। इसके बाद पुनः अजघन्य अनुभागबन्ध होने लगता है, इसलिए यहाँ चार घातिकर्मोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है । शेष कथन सुगम है। स्वामित्व और कालका विचार कर अन्तरकाल ले आना चाहिए। १६२. कृष्णलेश्यावाले जीवोंमें चार घातिकोके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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