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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६३०. सुक्काए पंचणाणावरणादिधुवियाणं पढमदंडओ ओघो। णवरि तित्थय० आ जाता है। ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । आठ कषाय और आहारकद्विकके जघन्य अनुभागबन्धके स्वामित्वको देखते हुए यहाँ उनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता, अतः उसका निषेध किया है । स्त्रीवेद आदिके जघन्य अनुभागबन्धका जो स्वामित्व बतलाया है, उसके अनुसार इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है। जो पीतलेश्याके अपने उत्कृष्ट कालके प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य अनुभागबन्ध करानेसे उपलब्ध होता है । तथा मध्यमें इतने काल तक सम्यग्दृष्टि रखनेसे इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी साधिक दो सागर कहा है। पुरुषवेद, हास्य और रतिका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयत करता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकाल का निषेध किया है। यहाँ जो पीतलेश्यावाला अप्रमत्तसंयत अन्तमहर्तके बाद लेश्या बदलकर तपकनोणिपर चढ़नेवाला है, उसीकी अपेक्षा जघन्य अन्तरका निषेध किया है। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान कहा है। अरति और शोक भी परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका दोनों प्रकार का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूते कहा है। देवायुका जघन्य अनुभागबन्ध तियञ्च और मनुष्य करते हैं और इनके पीतलेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इसके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। मनुष्यगति आदिके स्वामित्वको देखते हुए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है, क्योंकि पीतलेश्याके उत्कृष्ट कालके प्रारम्भमें और अन्तमें यथायोग्य इनका जघन्य अनुभागबन्ध हो,यह सम्भव है। तथा ये परावर्तमान प्रकृ. तियाँ हैं. इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान कहा है। देवर चतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वसंक्लिष्ट तिर्यश्च और मनुष्य करता है। इनमें पीतलेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । और ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। तथा देव पर्यायमें. इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । यहाँ पर यह मानकर कि पीतलेश्यामें जघन्य अनुभागबन्ध होने के बाद यदि लेश्या बदल जाती है ,तो इनके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर प्राप्त होता है; क्योंकि जब मनुष्य और तिर्यश्चोंमें जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नहीं बना तो अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर देवोंमें उत्पन्न करा कर लाना चाहिए, इस अभिप्रायको ध्यानमें रखकर यह अन्तर कहा है। देवगतिके समान औदारिकशरीर आदिके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर जानना चाहिए । मात्र इनका जघन्य अनुभागबन्ध सौधर्म-ऐशान कल्पमें कराकर यह अन्तर लाना चाहिए। पदमलेश्या में इसी प्रकार अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसका काल साधिक अठारह सागर होनेसे इसे ध्यानमें रखकर यह अन्तरकाल लाना चाहिए। तथा इस लेश्यामें पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रस इन प्रकृतियोंको ध्रुव मानकर अन्तरकाल लाना चाहिए; क्योंकि एक तो पद्मलेश्यामें एकेन्द्रियजाति और स्थावरका बन्ध न होनेसे ये दोनों प्रकृतियाँ ध्रुव हैं। १ पदुमलेश्यामें औदारिक आङ्गोपाङ्गका बन्ध देवोंके ही होता है तथा इनके एकेन्द्रियजाति और स्थावरका बन्ध नहीं होता, इसलिए यह भी ध्रुव है। ६३०. शुक्ल लेश्यामें पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका प्रथम दण्डक श्रोधके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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