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________________ अन्तरपरूवणा ४१७ पंचिं०-समचदु०-ओरालि०अंगो०--वजरि०-मणुसाणु०-पसत्थवि०-तस-सुभग-सुस्सरआदेज०-उच्चा० ज० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि० । अजे० सादभंगो । देवगदि०४ ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि० । अथवा ज. णत्थि. अंतरं यदि लेस्ससंकमणं कीरदि। अज० ज० पलि. सादि०, उ० बेसाग० सादि । ओरालि०-तेजा--क०--पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत--पत्ते--णिमि०तित्थ० ज० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि० । अज० ज० ए०, उ० बेस० । एवं पम्माए वि । णवरि पंचिं०-ओरालि०अंगो०-तस० तेजइगादीहि सह धुवं भाणिदव्वा । संस्थान, औदारिकमाङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। देवगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अथवा जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है; यदि लेश्या संक्रमण कर लेता है तो। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और तीर्थङ्करके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकाङ्गोपाङ्ग और त्रस इन प्रकृतियोंको तैजसशरीर आदिके साथ ध्रुव कहना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ पीतलेश्यामें सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयत जीव पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध करता है, ऐसा स्वामित्वमें कहा है। इसके दो विकल्प होते हैं-एक अन्तमुहूर्तके बाद तपकश्रेणि पर चढ़नेवाला और दूसरा स्वस्थान अप्रमत्त । प्रथम विकल्प ग्रहण करने पर इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता है और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है। तथा दूसरा विकल्प ग्रहण करने पर इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय प्राप्त होता है । स्त्यानगृद्धि तीन आदिका जघन्य अनुभागबन्ध संयमके अभिमुख हुआ मनुष्य करता है, किन्तु अन्तमुहूर्तमें लौटकर और मिथ्यात्वमें ठहरकर यदि पुनः संयमके अभिमुख होता है तो उसके लेश्या बदल जाती है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है । तथा इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है,यह स्पष्ट ही है। यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर मनुष्योंके और उत्कृष्ट अन्तर देवोंके घटित करना चाहिए। साता आदिका जघन्य अनुभागबन्ध तीन गतिके जीव करते हैं,पर जब इसका उत्कृष्ट अन्तर लाना हो तब मनुष्यगतिमें अन्तिम अन्तमुहूर्तमें जघन्य अनुभागबन्ध करावे और साधिक दो सागर तक देव पर्यायमें रखकर पुनः मनुष्य होनेपर जघन्य अनुभागबन्ध करावे। इससे इन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका जो दो अन्तमुहूर्त अधिक साधिक दो सागर उत्कृष्ट अन्तर कहा है, वह १. ता. प्रतौ उ० सादि० अज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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