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________________ ३६८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ए०, उ० कायहि । अज० ओघं । मणुसगदिपंच० ज० ज० ए०, उ० कायहि । अज० ज० ए०, उ० तिण्णिपलि० सादि० । देवगदि०४ ज० ज० ए०, उ० कायहि । अज० ज० ए०, उ, तेत्तीसं० सादि० । आहारदुग० ज० अज० ज० अंतो०, उ० कायहिदी० । ६१४. णqसगेसु पंचणाणावरणादिदंडओ इत्थिभंगो । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणु०४ ज० ओघं । अज० णिरयभंगो । सादादिदंडओ तिण्णिआउ०-अटक ०वेउव्वियछ०-मणुस०३ ज० अज० ओघं । इत्थि०-णस०-उज्जो० ज० ज० ए०, उ० अणंतका० । अज० ज० ए०, उ० तेंतीसं० देमू० । पुस०-हस्स-रदि० । ज० णत्थि अंतरं । अज० सादभंगो। अरदि-सोग० ज० ज० ए०, उ० अद्धपोग्गल० । अज० है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। देवगति चतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-यहाँ सब अन्तरकाल पर प्रकाश न डाल कर जो विशेषता है, उसीका निर्देश करेंगे। कारण कि अब तक ओघ व आदेशसे सब प्रकृतियोंके अन्तरका जो स्पष्टीकरण किया है, उसीसे इसका बोध हो जाता है । यहाँ निद्रा और प्रचलाके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहनेका कारण यह है कि जो अपूर्वकरण उपशामक इनकी व्युच्छित्ति कर और अन्तमुहूर्तमें सवेदभागमें ही मर कर देव हो जाता है, उसके इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तमुहूर्त अन्तरकाल देखा जाता है। देवायुके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहनेका कारण यह है कि जो पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य प्रथम त्रिभागमें देवायुका अजघन्य अनुभागबन्ध करके तेतीस सागरकी आयुवाला विजयादिक चार अनुत्तर विमानोंमें उत्पन्न होता है और वहाँ से च्युत होकर पुनः पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य होकर अपने भवके अन्तमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर देवायुका अजघन्य अनुभागबन्ध करता है, उसके देवायुके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण ही देखा जाता है । ६१४. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नारकियोंके समान है। सातावेदनीय आदि दण्डक, तीन आयु, आठ कषाय, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। पुरुषवेद, हास्य और रतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर साता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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