SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'अंतरपरूवणा ३६७ ६१३. पुरिसेसु पंचणा०-चदुदंसणा०--चदुसंज०-पंचंत० ज० अज० णत्थि अंतरं । थीणगि०-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० ज० अंतो०, उ० कायहिदी। अज. ओघं । णिद्दा-पचला०-पंचणोक-अप्पसत्थव०४-उप०-तित्थ० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० ए०, णिद्दा-पचला. अंतो०, उ० अंतो० ! सादासाद०-अरदि-सोगपंचिंदि०--तेजा.--क०--समचदु०--पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिरमुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-जस०-अजस०-णिमि०-उच्चा० ज० ज० ए०, उ० कायहि । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । अहक० ज० ज० अंतो०, उ० कायहि । अज० ओघं । इत्थि० ज० ज० ए०, उ. कायहि । अज० ओघं । णqस-पंचसंठा०--पंचसंघ०--अप्पसत्थ०-दूभग--दुस्सर--अणादें--णीचा० ज० ज० ए०, उ० कायहि । अज० ओघं । णिरयाणु० इत्थिभंगो । दोआउ० ज० अज० ज० ए०, उ० कायहि । देवाउ० ज० ज० एग०, उ. कायहि । अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । णिरयगदि-चदुजादि-णिरयाणु०-आदाव०-थावरादि०४ ज० ज० ए०, उ० कायहि० । अज० अणु०भंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-उज्जो० ज० ज० ६१३. पुरुषवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर अघिके समान है। निद्रा, प्रचला, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, निद्रा और प्रचलाका अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, पश्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ,अशुभ, सुभग, सुस्सर,आदेय, यश कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। आठ कषायोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । तथा अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। नरकायुका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। दो आयुओंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। देवायुके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समर उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy