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________________ ३६२ महाबंधे ऋणुभागबंधाहियारे ६०८. ओरालियमि० पंचणा०--णवदंसणा--मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु.. देवग०-ओरालि०-वेउव्वि०-तेजा-क०--वेउवि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४ -देवाणुपु०अगु०-उप०-णिमि०-तित्थय०-पंचंत० ज० अज. पत्थि अंतरं । पुरिस०-हस्स-रदितिरिक्व०४-ओरालि०अंगो०-पर०-उस्सा० ज. पत्थि अंतरं । अज० ज० ए०, उ. अंतो० । सेसाणं ज० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसके अन्तरका निषेध किया है। तथा परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान कहा है। नरकायु और देवायुका स्पष्टीकरण जिस प्रकार मनोयोगी जीवोंके कर आये हैं,उस प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। कुछ कम बाईस हजार वर्ष का त्रिभाग साधिक सात हजार वर्ष होता है, इसलिए तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। तात्पर्य यह है कि त्रिभागके प्रारम्भमें और आयुमें अन्तमुहूर्त शेष रहने पर आयु बन्ध कराने पर यह अन्तर उपलब्ध होता है । औदारिककाययोगमें तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीव करते हैं और वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष है, अतः यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन हजार वर्ष कहा है । तथा परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तेजसशरीर आदि का जघन्य अनुभागबन्ध संज्ञी जीव करते हैं और इनके औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है, अतः यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६०८. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोयाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यश्चगतिचतुष्क, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात और उच्छवासके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-स्वामित्वके अनुसार प्रथम दण्डकमें कही गई और दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध औदारिकमिश्रकाययोगके रहते हुए अन्तर देकर दो बार सम्भव नहीं. इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है । इसी प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका अजघन्य अनुभागबन्ध भी अन्तर देकर दो बार सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रथम दण्डककी प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तर समयमें शरीरपर्याप्ति पूर्ण कर अन्य योगवाला होगा.उसके पहले समयमें होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका भी निषेध किया है। मात्र दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके औदारिकमिश्रयोग रहता है, अतः परावर्तमान होनेसे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तथा शेष प्रकृतियाँ भी परावर्तमान हैं और उनके जघन्य अनुभागबन्धके लिए शरीर पर्याप्ति प्राप्त होनेमें एक समय पूर्वका कोई नियम नहीं है, अतः उनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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