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________________ अंतरपरूवणा ३५.३ उ० ज० उ० तो ० । सादासाद ० -- अरदि - सोग - थिराथिर - सुभासुभ-- जस ० -- अजस० णत्थि उ० अंतरं । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । हस्स रदि० उ० ज० ए०, पुव्वकोडी देसू० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । देवायु० उ० अणु० ज० ए०, उ० पगदि० अंतरं । एवं संजदा० । ५८०. सामाइ० - छेदो० धुविगाणं उ० अणु० णत्थि अंतरं । सेसाणं मणपज्जवभंगो । परिहार • सामाइगच्छेदा० भंगो | मुहुमसंप० सव्वाणं उ० अणु० णत्थि अंतरं । संजदासंजदे परिहार०भंगो । णवरि अप्पप्पणी पगदीओ णादव्वाओ । 1 I मुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और कीर्ति उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । देवायुके उत्कृष्ट और अनु त्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्ध के अन्तर के समान है । इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई अप्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध असंयम अभिमुख हुए जीवके और सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तपकश्रेणि में होता है, अतः इसके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा इनका उपशमश्रेणिसे उतरते समय अन्तमुहूर्त अन्तरसे बन्ध कराने पर इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है और असातावेदनीय आदि अप्रशस्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध असंयम अभिमुख जीवके होता है. अतः इनके भी उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। कुछ कम पूर्वकोटिके प्रारम्भमें और अन्तमें हास्य और रतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव होनेसे इसका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। तथा ये भी परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । यहाँ देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर एक भत्रकी अपेक्षा ही घटित किया जा सकता है और प्रकृतिबन्धमें इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण बतलाया है। वही यहाँ दोनों बन्धोंका बन जाता है, अतः यह प्रकृतिबन्ध के अन्तर के समान कहा है। संयत जीवोंमें मन:पर्ययज्ञानी जीवों से इस अन्तर प्ररूपणा में कोई विशेषता नहीं है, इसलिए वह उनके समान कही है। ५८०. सामायिक और छेदोपस्थापनासंगत जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मन:पर्ययज्ञानके समान हैं । परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें सामायिक और छेदोपस्थानासंयत जीवोंके समान भङ्ग । सूक्ष्मसाम्परायिकसंगत जीवों में सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । संयतासंयत जीवों में परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । १. ता० प्रा० प्रत्योः ज० ए०, उ० अंतो० इति पाठः । २ ० प्रतौ स्थि अंतरं इति पाठः । ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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