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________________ ३५२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५७६. मणपज्ज. पंचणा०--छदसणा०-चदुसंज०--पुरिस०-भय-दु०-देवगदिपंचिंदि०-चदुसरीर-समचदु०-दोअंगो०-पसत्थापसत्थ०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०तस०४ -सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० उ० पत्थि अंतरं । अणु० कराके और अन्तमुहूर्तवालेको नीचे उतार कर और उनका बन्ध कराके इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त ले आना चाहिए । आठ कषायोंका भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा संयतासंयत और संयतका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम एक पूर्वकोटि होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। इन ज्ञानोंकी कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें हास्य और रतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो यह सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर कहा है । अन्य जिन प्रकतियोंका यह अन्तर हो वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। तथा परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका ओघके समान जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। देवके मनुष्यायुका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके, पूर्वकोटिके आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अनन्तर तेतीस सागरकी आयुवाला देव होकर आयुके अन्तमें पुनः मनुष्यायुका बन्ध करने पर मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है सो इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वकी छियासठ सागरसे अधिक जो कायस्थिति बतलाई है, उससे कुछ पूर्वकोटियाँ ही ली गई हैं और ऐसा जीव नियमसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि होता है, अतः उसका अन्तिम भव देव न होकर मनुष्य ही होगा। किन्तु इस भवमें आयुबन्ध सम्भव नहीं है, अतः इससे देव भवका अन्तर देकर पिछले मनुष्यभवमें देवायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराना होगा। विचार कर देखने पर यह काल छियासठ सागरसे कम होता है, अतः यहाँ देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। तथा इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है, यह स्पष्ट ही है। कारण कि प्रथम और तीसरे मनुष्य भवमें देवायुका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करानेसे और बीचमें तेतीस सागर काल तक देव पर्यायमें रखनेसे यह अन्तरकाल आ जाता है। एक पर्वकोटि : इस प्रकार मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर दो समय अधिक एक पूर्वकोटि कहा है। देवगति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रोणिमें होनेसे इसके अन्तरका निषेध किया है। तथा उपशमश्रोणिमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने पर उतरते समय पुनः इनका बन्ध अन्तमुहूर्तके अन्तरसे होता है और यदि इनकी बन्धव्युच्छित्तिके बाद जीव मर कर तेतीस सागरकी आयुवाला अहमिन्द्र हो जावे तो वहाँसे आने पर देवगतिचतुष्कका और संयम ग्रहण करने पर आहारकद्विकका बन्ध सम्भव है, मध्यमें नहीं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। ५७६. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, वसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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