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________________ ३५० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ए०, उ. अंतो० । तिरिक्खग०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्खाणु०--अप्पसत्य-भगदुस्सर-अणादें-णीचा० असाद भंगो। एइंदि०-आदाव-थावर० उ० ज० एग०, उ० बेसा० सादि० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो०। तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि० उ० अणु' पत्थि अंतरं । ५७८. आभि०-सुद--ओधि० पंचणा०--छदसणा०--सादासाद०-चदुसंज०तीन जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । तिर्यश्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका भङ्ग असातावेदनीयके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अनत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-विभङ्गज्ञानका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है। इसके प्रारम्भमें और अन्तमें पाँच ज्ञानावरण आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करानेपर इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर होता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंका यह अन्तर कहा है, यह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। इसी प्रकार तैजसशरीर आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर न कहनेका कारण जानना चाहिए। मात्र सातादण्डकमें मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए देव नारकीके जानना चाहिए। ये सब प्रकृतियाँ और असाता आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। नरकायु और देवायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्रमसे तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त तिर्यञ्च और मनुष्यके तथा सर्वविशुद्ध मनुष्य के होता है और ऐसे जीवों के विभङ्गज्ञानका काल अन्तमुहूर्त है, अतः यहाँ इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल मनोयोगी जीवोंके समान बन जानेसे वह उनके समान कहा है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तियश्चो और मनुष्योक हाता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध देव और नारकियोंके भी सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना कहा है। नरकगति आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तिर्यश्चगति आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर असातावेदनीयके समान बन जानेसे वह उसके समान कहा है। ऐशान कल्प तक एकन्द्रियजाति आदिका बन्ध होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । " ५७८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह १. ता. प्रतौ णिमि० अणु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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