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________________ अंतरपरूवणा ३४१ अक० पंचिदियभंगो । णिरणायु० मणुसि० भंगो। तिरिक्ख० मणुसायु० उ० अणु० पंचिदियपज्जत्तभंगो | देवायु० उ० ज० एग०, उ० कायहिदी० । अणु० ज० एग०, उ० तैंतीस ० सादि० । णिरय ० - तिरिक्ख० - चदुजादि- दोआणु० - आदावुज्जो०थावरादि०४ उ० ज० एग०, उ० कायहिदी० । अणु० ज० एग०, उ० तेवट्ठि - सागरोवमसद० । मणुसगदिपंचग० उ० ज० एग०, उ० कार्यद्विदी ● | अणु० ज० एग०, उ० तिष्णि पलि० सादि० । देवगदि०४ उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० तेत्तीसं० सादि० । णबुंसग० पंचसंठा ० पंचसंघ० - अप्पसत्थ० -दूभग- दुस्सरअणादे०-णीचा० उ० ज० एम०, उ० कार्यद्विदी० । अणु० ओघं । आहारदुगं उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० तो ० उ० कायहिदी० । तेजा ० क० -पसत्थ०४ - अगु० - णिमि० - तित्थ० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । ? अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषायों का भङ्ग पचन्द्रियोंके समान है। नरकायुका मनुष्यनीके समान भन है । तिर्यवायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान है । देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नरकगति, तिर्यञ्चगति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, आप, उद्योत और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एकसो त्रेसठ सागर है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । देवगतिचतुष्क के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघ के समान है, आहारकद्विकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है, अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । विशेषार्थ - यहाँ जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काय स्थितिप्रमाण कहा है, उनका कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्त में उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट बन्ध कराके वह अन्तर ले आना चाहिए। स्त्यानगृद्धि तीन आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो उत्कृष्ट अन्तर काल से कुछ कम दोछियासठ सागर बतलाया है, वह पुरुषवेदी के ही सम्भव है, अतः यह घ के समान कहा है । उपशमश्रेणि में निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होने पर मरण द्वारा कम कम एक समय के अन्तर से और अधिक से अधिक अन्तमुहूर्त के अन्तर से पुरुषवेदी के इनका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और १. श्रा० प्रतौ मणुसि० भंगो देवायु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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