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________________ ३४० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५७१. पुरिस० पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसं० पंचंत० उ० ज० एग०, उ० कायहिदी० । अणु० ज० एग०, उ० बेस० । थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४इत्थि० उ० ज० एग०, उ० कायहिदी० । अणु० ओघं । णिद्दा-पचला०-असादा०सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस० उ० ज० एग०, उ. कायहिदी० । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । सादा-पंचिंदि०-समचदु०-पर-उस्सा०पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-उच्चा० उ० गत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो।। स्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया और मध्यमें अन्य आयुओंका बन्ध किया । अर्थात् तिर्यश्चायुका बन्ध करनेवालेने मनुष्यायु और देवायुका मध्यमें बन्ध किया और मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले ने मध्यमें तिर्यञ्चायु और देवायुका बन्ध किया यह सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण कहा है । कोई देवायुका बन्ध करके पचपन पल्यकी आयुवाली देवी हुई। पुनः वहाँसे च्युत होकर पूर्वकोटि पृथक्त्व काल तक मनुष्यनी और तिर्यञ्चयोनिनी होकर तीन पल्यकी आयुके साथ उत्पन्न हुई। और वहाँ अन्तमें देवायुका बन्ध किया, तो इस प्रकार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पचपन पल्य देवायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है । नरकगति आदिका देवीपर्यायमें बन्ध नहीं होता और इसमें अन्तर्मुहूर्त काल मिलाने पर इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। मनुष्यगतिपश्चकका उत्तम भोगभूमिके पर्याप्त जीवोंके बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है । देवगतिचतुष्क,आहारकद्विक और तैजसशरीर आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकौणिमें होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा देवी पर्यायमें और वहाँसे आकर अन्तमुहूर्त काल तक देवगतिचतुष्कका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य कहा है। कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें आहारकद्विकका बन्ध हो और मध्यमें न हो यह सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अनर कायस्थिति प्रमाण कहा है । तैजसशरीर आदि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे इसका भी निषेध किया है। ५७१. पुरुषवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। सातावेदनीय, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ठ १. ता. प्रतौ पंचणा. चदुसंज. इति पाठ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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