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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६८, ओरालियका० पंचणाणावरणादि० मणजोगिभंगो। णवरि तिरिक्खमणुसायु० उ० ज० एग०, उ० अंतो० । अणु० ज० एग०, उ० सत्तवाससह० सादि। ५६६. ओरालियमि० पंचणा०--णवदंसणा०--मिच्छत्त--सोलसक०--भय-दु०उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा उपशमश्रेणिमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका एक समयके लिए और अन्तमुहूर्तके लिए अबन्धक होकर मर कर देव होने पर एक समय या अन्तमुहूर्तके अन्तरसे इनका पुनः बन्ध सम्भव है, इसलिए ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तथा अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके बन्धके बाद एक समय तक या अन्तर्मुहूर्त तक इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है, इस लिए अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । स्त्यानगृद्धि आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल तो ज्ञानावरणादिके समान ही घटित करना चाहिए । मात्र इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। यहाँ अन्य प्रकार से अन्तर सम्भव नहीं है। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकोणिमें होता है, तथा उद्योतका सम्यक्त्वके अभिमुख सातवें नरकके नारकीके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है । तथा इनमें कुछ तो अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और कुछका उपशमश्रेणिकी अपेक्षा अन्तर सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध संज्ञी पञ्चोन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तथा तिर्यञ्चायुका काययोगके रहते हुए एकेन्द्रियोंमें साधिक बाईस हजार वर्षके अन्तरसे बन्ध सम्भव होनेसे इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष कहा है और मनुष्यायुका ओघके समान साधिक सात हजार वर्षके अन्तरसे अनुभागबन्ध सम्भव है इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान कहा है। मनुष्यगतिहिकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध पञ्चन्द्रियपर्याप्तके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। और एकेन्द्रियोंमें इनका ओघके समान असंख्यात लोकका अन्तर देकर बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर ओषके समान कहा है। आहारकद्विक का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है तथा इनका एक बार बन्ध होनेके बाद पुनः बन्ध होनेके काल तक योग बदल जाता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। ५६८. औदारिककाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरणादिका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात हजार वर्ष है। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादि सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल जिस प्रकार मनोयोगी जीवोंके घटित करके बतलाया है उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । मात्र औदारिककाय. योगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाइस हजार वर्ष होनेसे यहाँ तियञ्चायु और मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सात हजार वर्ष प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। ५६६. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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