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________________ अंतर परूवणा ३३५ ५६७. कायजोगी पंचणा० - छदंसणा ० - असादा०--- -- चदुसंज० - णवणोक ०दोगदि - चदुजादि - ओरालि० पंचसठा०--ओरालि० अंगो० - इस्संघ० -- अप्पसत्थ०४ - दोआणु ० उप०-आदाव० - अप्पसत्थवि ० थावरादि ०४ - अथिरादिछं०-णीचा ० - पंचंत० उ० अणु ० ज० एग०, उ० अंतो० । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - बारसक० - णिरय- देवायु० उ० ज० एग०, उ० अंतो० । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । सादा० - देवर्गादि ४पंचिदि० -तेजा ० ० क० - समचदु० -- पसत्थ०४ - अगु०३ - उज्जो ० --पसत्थवि ०थिरादिछ० - णिमि० - तित्थय० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । तिरिक्खायु० उ० ज० एग०, उ० अंतो० । अणु० ज० एग०, उ० बावीसं वाससहस्सा ० सादि० । मणुसायु० उ० ज० एग०, उ० तो ० | अणु० ओघं । मणुस ०मणुसाणु० उ० ज० एग०, उ० अंतो० । अणु० ओघं । आहारदुग० उ० अणु० णत्थि अंतरं । उच्चा० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ओघं । ०--तस०४ कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । आहारक शरीर आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणि में होता है, इसलिए तो इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। तथा इनकी बन्धव्युच्छित्तिके बाद उसी योगके रहते हुए पुनः इनका बन्ध सम्भव नहीं है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । ५६७. काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, नौ नोकषाय, दो गति, चार जाति, श्रदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, आप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय, नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । सातावेदनीय, देवगतिचतुष्क, पञ्च ेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और तीर्थङ्कर के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओके समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। त्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तथा अनुकृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल श्रोध के समान है । विशेषार्थ - काययोग में पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तजीव होता है और इनके काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए तो इसमें इन प्रकृतियों के १. ता० प्रा० प्रत्यौः थिरादिछ० इति पाठः । २. ता० प्रतौ० उ० उ० पु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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