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________________ ३३३ अंतरपरूवणा ज० एग०, उ० पगदिअंतरं । मणुसायु० उ० अणु० ज० एग०, उ० पगदिअंतरं। सेसाणं उ० णाणाभंगो। अणु० ज० एयसमयं, उ० अंतो० । एवं तेउ०-वाउ० । णवरि मणुसगदि०४ पत्थि । तिरिक्खगदि०४ धुवभंगो । वणप्फदिका० एइंदियभंगो । णवरि तिरिक्वायु० अणु० ज० एग०, उ० दसवस्ससहस्साणि सादि० । मणुसायु० उ० अणु० ज० एग०, उ० तिण्णिवाससहस्साणि सादि० । मणुसगदितिगं सादभंगो। बादरवणप्फदिपत्ते. पुढविभंगो। णियोद० वणप्फदिभंगो। णवरि अप्पप्पणो हिदी भाणिदव्या। अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। इसी प्रकार अग्निकायिक और वायकायिक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशे. षता है कि इनके मनुष्यगतिचतुष्कका बन्ध नहीं होता। तथा तिर्यश्चगतिचतुष्कका भङ्ग ध्रुव प्रकृतियों के समान है। वनस्पतिकायिक जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है। मनुष्यायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्त एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन हजार वर्ष है। मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीवोंका भङ्ग पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। निगोद जीवोंका भङ्ग वनस्पतिकायिक जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । विशेषार्थ-कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो और मध्यमें न हो तो ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण आता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार अन्य जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है,उसे घटित कर लेना चाहिए। तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका और मनुष्यायुके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर इनके प्रकृति बन्धके अन्तरके समान कहा है सो उसका यही अभिप्राय है कि प्रकृतिबन्धके समय इनका जो अन्तर बतलाया है.वह यहाँ उक्त अन्तर जानना चाहिए। अग्निकायिक और वायकायिक जीवोंके और सब अन्तरकाल इसी प्रकार बन जाता है। मात्र इनके मनुष्यगतिचतुष्कका बन्ध नहीं होनेसे तिर्थञ्चगतिचतुष्क ध्रवप्रकृतियाँ हो जाती हैं। अर्थात् आयुबन्धके समय इनके तिर्यश्चायुका ही बन्ध होता है और मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका बन्ध न होकर निरन्तर तिर्यञ्चगति, तियश्चानुगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका ही बन्ध होता है। इसलिए यहाँ इन तीन प्रकृतियों के अन्तरकालकी प्ररूपणा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान करनी चाहिए और मनुष्यायुका अन्तरकाल न कहकर एकमात्र तिर्यञ्चायुका अन्तरकाल कहना चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवोंकी कायस्थिति एकेन्द्रियों के समान है, इसलिए इनका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान कहा है। मात्र इनकी भवस्थिति दस हजार वर्ष है, इसलिए इनमें तिर्यञ्चायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दस हजार वर्ष तथा मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन हजार वर्ष कहा है। तथा इनके तियञ्चगतित्रिककं प्रतिपक्षरूपसे मनुष्यगतित्रिकका भी बन्ध होता रहता है, अतः इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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