SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६५. पुढवि०-आउ० धुविगाणं उ० ज० एग०, उक्क० अप्पप्पणो कायहिदी कादव्वा । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । तिरिक्खायु० उ० णाणाभंगो। अणु० reamerammarimmerrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrmmm. अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त सर्वत्र बन जाता है। देशसंयतके अप्रत्याख्यानावरण चारका और संयत के अप्रत्याख्यानावरण चार और प्रत्याख्यानावरण चार इन आठोंका बन्ध नहीं होता और संयमा. संयम व संयम इन दोनोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान घटित हो जानेसे वह ओघके समान कहा है। नपुंसकवेद आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर भी ओघके समान बन जाता है, क्योंकि वह इन मार्गणाओंमें अविकलरूपसे घटित होता है, इसलिए वह भी अोषके समान कहा है । जीव त्रस और पश्चन्द्रिय रहते हुए यदि नारक, तिर्यञ्च या देव नहीं होता तो सौ सागर पृथक्त्व काल तक नहीं होता। इतने कालके बाद उसे यह पर्याय अवश्य ही धारण करना पड़ती है, परन्तु मनुष्यपर्यायके विषयमें यह बात नहीं है, इसलिए यहाँ तीन आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण कहा है और मनुष्यायुके अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अपने उत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तरके समान अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण कहा है। मात्र यह अन्तर सामान्य त्रस और सामान्य पञ्चन्द्रियोंमें सम्भव है । इनके जो पर्याप्त हैं,उनमेंसे पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें तो चारों आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण ही है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि कोई निरन्तर पञ्चन्द्रिय पर्याप्त बना रहे तो सौ सागर पृथक्त्व कालके बाद उसे नारकादि विवक्षित पर्याय अवश्य ही धारण करनी पड़ेगी। पर त्रस पर्याप्तकों में तो तीन आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर यही रहेगा। मात्र मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अपने उत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तरके समान अपनी कायस्थितिप्रमाण होगा। नरकगति आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ओघसे जो एकसौ पचासी सागर बतलाया है वह इन मार्गणाओंमें ही सम्भव है, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है । तिर्यञ्चगति आदिके अनुस्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ओघमें इन्हीं मार्गणाओंकी मुख्यतासे कहा है, इसलिए वह ओघके समान कहा है। सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टि नारकीके व उसके बाद अन्तमुहूर्त काल तक मनुष्यद्विकका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । देवगतिचतुष्क और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसका अन्तर सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। तथा सातवें नरकके मिथ्यादृष्टि नारकी के और वहाँ से निकलने पर अन्तमुहूर्त काल तक इनका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। औदारिकशरीर आदिक अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ओघसे साधिक तीन पल्य बतलाया है वह यहाँ घटित हो जाता है, अतः यह अोषके समान कहा है। आहारकद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, अतः इसके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा इनकी बन्धव्युच्छित्ति होने पर इन मार्ग: एणाओंमें पुनः बन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त में और अधिकसे अधिक अपनी-अपनी कायस्थितिका अन्तर देकर सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तमुहूते और उत्कृष्ट अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है। ५६५. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण करना चाहिए । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । तिर्यश्चायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरण के समान है । अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy