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________________ ३२० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५५७. तिरिक्खेसु पंचणा०-छदसणा०-अहक०--भय-दु०-अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० उक्क० ओघ । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबं०४-इत्थि० उ० ओघं । अणु० ज० एग०, उक्क० तिण्णिपलि० देस० । सादा०जघन्य अन्तर पूर्ववत् एक समयके अन्तरसे बन्ध कराके ले आना चाहिए। दोनों आयुओंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है, यह स्पष्ट ही है। मनुष्यद्विक और उच्चगोत्रका सम्यग्दृष्टि नारकीके उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करावे । फिर कुछ कम तेतीस सागर काल तक मिथ्यात्वमें रखकर पुनः अन्तमें सम्यग्दृष्टि बनाकर वैसा ही बन्ध करावे, तो इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर आनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। यह दोनों प्रकारका जघन्य अन्तर एक समय एक समयके अन्तरसे उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट बन्ध कराके ले आवे। उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख नारकीके होता है। अतः यह अवस्था कमसे कम अन्तमुहूर्तका अन्तर देकर और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरका अन्तर देकर प्राप्त होती है, अत: उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तथा उद्योत अध्रवबन्धिनी प्रकृति होनेसे इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और कोई मिथ्यादृष्टि नारकी प्रारम्भ और अन्त में इसका बन्ध करता है और बीचमें कुछ कम तेतीस सागर काल तक सम्यग्दृष्टि होकर उसका बन्ध नहीं करता, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। सातावेदनीय आदिमेंसे किन्हींका मिथ्यादृष्टि और किन्हींका सम्यग्दृष्टि उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है। यह कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरके अन्तरसे करता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । तथा ये सब सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर क समय र उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूतं कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध तीसरे नरक तक ही होता है। उसमें भी साधिक तीन सागरकी आयुवाले नारकीसे अधिक स्थितिवालेके नहीं होता, अतः इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर कहा है, क्योंकि यहाँ एक समयके अन्तरसे या साधिक तीन सागरके अन्तरसे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है । तथा इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। सातवीं पृथिवीमें यह ओघ नारकप्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उसके कथनको सामान्य नारकीके समान कहा है। मात्र यहाँ से चौथी पृथिवी तक तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा कथन नहीं करना चाहिए। शेष छह पृथिवियोंमें भी अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार यह अन्तर कालप्ररूपणा बन जाती है। इतनी विशेषता है कि इन पृथिवियोंमें मनुष्यगतित्रिक सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, अतः इनका अन्तर सातावेदनीयके समान कहना चाहिए। तथा इन पृथिवियोंमें उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि साकार-जागृत तत्प्रायोग्य विशद्ध परिणामवालेके होता है, अतः इसका अन्तर काल नपुंसकवेदके समान बन जानेसे वह उसके समान ५५७. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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