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________________ कालपरूवणा ३११ अंतो०, उक्क० तिण्णि पलि० देसू० । मणुसगदिपंचग० ज० एग० । अज० [ज.] अंतो०, उक्क० तेत्तीसं०। तित्थ० ज० एग०। अज० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि। सेसं ओधिभंगो। ५५०. उवसम० पंचणा०-छदंसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०--मणुम०पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थापसत्थ०४मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-मुस्सर-आदे-णिमि०-तित्थ०--उच्चा०पंचंत० ज० एग० । अज० ज० उ० अंतो० । सादादि० ओधिभंगो । एवं हस्स-रदिअरदि-सोग-देवगदि०४-आहारदुगं । अजघन्य अनुभागबन्धका काल ओधके समान है। देवगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। शेष भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर होंनेसे यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर कहा है। मात्र वेदक सम्यक्त्वके साथ असंयमका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर और असंयम व संयमासंयम दोनोंका मिलाकर उत्कृष्ट काल साधिक बयालीस सागर होनेसे यहाँ अप्रत्याख्यानावरण चारके और प्रत्याख्यानावरण चारके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर और साधिक व्यालीस सागर कहा है। सातादि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है.यह स्पष्ट ही है। मनुष्य या तिर्यञ्चके वेदकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य होनेसे यहाँ देवगति चतुष्कका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। देवोंमें और नारकियोंमें तेदकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और देवोंमें उत्कृष्ट काल तेतीस सागर होनेसे यहाँ मनुष्यगति पञ्चकके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। मनुष्योंमें वेदकसभ्यक्त्वका जयन्य काल अन्तमुहूते और मनुष्य व देवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवालेका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर होनेसे यहाँ तीर्थकर प्रकृतिके अजघन्य अनुभागबन्धका जवन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि नरक और देवमें तीर्थक्कर प्रकृतिका जिसके बन्ध होता है, वह नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होता है, इसलिए यहाँ जघन्य काल अन्तमुहूर्त घटित नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानके समान है,यह स्पष्ट ही है। ५५०. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चोन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सातावेदनीय आदिका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार हास्य, रति, अरति, शोक, देवगति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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