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________________ २६८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५३७. अवगदवे० पंचणा०--चदुदंसणा०-सादा०-चदुसंज०--जस०--उच्चा०पंचंत० ज० एग० । अज० ज० एग०, उक्क० अंतो० । ५३८. कोधे पंचणा०-छदंसणा०--चदुसंज०-भय०--दु०--अप्पसत्थ०४-उप०पंचत० ज० एग० । अज० जे० उ० अंतो०। केसिंचि अज० ज० एग० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-बारसक०-पुरिस०-हस्स-रदि-तिरिक्व०३-आहारदुग-तित्थ० ज० एग० । अ० [ज.] एग०, उक्क० अंतो० । सादासाद०-चदुआयु०-तिण्णिगदिअसंख्यात लोकप्रमाण बतलाया है। वह नपुंसकवेदी जीवोंके ही उपलब्ध होता है, क्योंकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव, जिनके इतने काल तक इनका निरन्तर बन्ध होता है, नपुंसकवेदी ही होते हैं, अतः यह काल ओघके समान कहा है। सामान्य नारकियोंमें मनुष्यगति आदिके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर घटित करके बतला आये हैं। नारकी नपुंसकवेदी होनेसे यहाँ भी वह बन जाता है, अतः यह काल सामान्य नारकियोंके समान कहा है। जो नपुंसकवेदी मनुष्य पर्याप्त जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहता है, उसके निरन्तर देवगतिद्विकका बन्ध होता है । यह काल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण होनेसे देवगतिद्विकके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। वैक्रियिकद्विकके अजघन्य अनुभागबन्धका काल देवगतिके समान कहनेका यही कारण है। सातवें नरकके नारकीके वहाँ से मर कर नपुंसकवेदी तिर्यश्च होने पर अन्तमुहूर्त काल तक पञ्चन्द्रियजाति आदिका नियमसे बन्ध होता रहता है । उत्कृष्टरूपसे यह काल साधिक तेतीस सागर होनेसे पञ्चन्द्रिय जाति आदिके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। औदारिकशरीर 'आदिके जजन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जो काल ओघमें कहा है वह सबका सब नपुंसकवेदी जीवोंके ही घटित होता है। कारण कि अनन्त काल प्रमाण कायस्थिति नपुंसकवेदमें ही सम्भव है, अतः यह काल ओघके समान कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका नरकमें साधिक तीन सागर काल तक बन्ध सम्भव है, अतः इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। ५३७. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्त विशेषार्थ--बन्धके प्रकरणमें अपगतवेदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे इनमें सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। ५३८. क्रोध कषायमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मात्र किन्हींके मतसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है। स्त्यानगृद्धित्रिक. मिथ्यात्व, बारह कषाय. पुरुषवेद. हास्य, रति, तिर्यश्चगतित्रिक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, १. ता० प्रती अज० ए० उ०, प्रा० प्रती अजा. उ. इति पाटः। २. ता० श्रा० प्रत्योः एग। उक० ज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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