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________________ कालपरूवरणा २६७ रदि--सोग--आहारदुग--आदाउज्जोव० ओघं । पुरिस० ज० ए० । अज० ज० एग०, उक० तेत्तीसं० देमू । तिरिक्वगदितिगं ओघं। मणुस०--समवदु०--जरि०-मणुसाणु०-पसत्य०--सुभग-सुस्सर--आदें--उच्चा० ज० अज० णिरयोघं । देवगदि०देवाणु० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उक्क० पुव्वकोडी दे० । पंचि-ओरालि० अंगो०-पर०-उस्सा०-तस०४ ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, उ० तैतीसं० सादि० । ओरालि०--तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०णिमि० ज० अज० ओघं । वेउवि०-वेउव्वि०अंगो० ज० ज० एग०, उक्क० वेसम० । अज० देवगदिभंगो। तित्थ० ज० एग० । अज० ज० एग०, उक्क० तिण्णिसाग० सादि० । चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अराते, शोक, आहारकाद्वक, आतप और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। पुरुषवेदके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल सामान्य नारकियोंके समान है। देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छवास और सचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग देवगतिके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है। विशेषार्थ-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल है। प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ होनेसे इनका इतने काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्तप्रमाण कहा है। मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त क्यों है, इसका हम पहले स्पष्टीकरण कर आये हैं । सातादिकके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल ओघके समान अन्तमुहूर्त यहाँ भी बन जाता है, क्योंकि ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है, अतः यहाँ यह काल ओघके समान कहा है। कालकी दृष्टिसे यही बात स्त्रीवेद आदिके विषयमें जाननी चाहिए। जो नारकी सम्यग्दृष्टि होता है, उसके निरन्तर पुरुषवेदका बन्ध होता है। इसीसे यहाँ पुरुषवेदके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। ओघसे तिर्गश्चगतित्रिकके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल ३. ता० प्रतौ तिरिक्खगदि श्रोधं इति पाठः । ४. प्रा. प्रती पुन्चकोडि० पंचिं० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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