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________________ २७६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे इनके अनुभागबन्धके कारणभूत परिणामोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है । तथा चार आयुओंको छोड़कर ये परावर्तमान प्रकृतियों होनेसे इनका कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक ही बन्ध होता है। तथा चार आयुओंका यद्यपि एकबार बन्ध अन्तमेहतं तक ही होता है. पर इनका एक समय तक अजघन्य बन्ध होकर दूसरे समयमें जघन्य बन्ध सम्भव है। अतः इन सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । स्त्रीवेद आदिके जघन्य अनुभागबन्धका जो स्वामी बतलाया है, उसके अनुसार इनके जघन्य अनुभागबन्धके योग्य परिणाम दो समयसे अधिक काल तक नहीं हो सकते। अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। पुरुषवेदका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरण जीवके अपनी बन्धब्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा यह एक तो परावर्तमान प्रकृति है। दूसरे मध्यमें सम्यग्मिथ्यात्व होकर सम्यक्त्वके साथ रहनेका उत्कृष्ट काल साधिक दो छियासठ सागरोपम है और ऐसे जीवके एकमात्र पुरुषवेदका ही बन्ध होता है, अतएव इसके अनुत्कृष्ट अनु. भागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो छियासठ सागर कहा है। हास्य और रतिका जघन्य अनुभागबन्ध अपूर्वकरण क्षपकके अपनी बन्ध-व्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें और आहारकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध प्रमत्तसंयतके अभिमुख अप्रमत्तसंयतके होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा हास्य और रति ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। अब रही आहारकद्विक सो इनका उपशेमश्रेणिमें एक समय तक अजघन्य अनुभागबन्ध बन सकता है, क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणिसे उतरते समय इनका एक समय तक बन्ध करके मरा और देव हो गया, उसके यह सम्भव है। तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध अधिकसे अधिक अन्तमुहूते काल तक ही होता है,यह स्पष्ट ही है, अतः इनके अजघन्य छानुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध सातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि जीवके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा ये एक तो प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है, दूसरे अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति प्रमाण काल तक इनका निरन्तर बन्ध होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है तथा ये प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। तथा प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेके साथ सर्वार्थसिद्धिमें इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। देवगतिद्विक भी प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और मध्यम परिणामोंसे बँधती हैं, अतः इनके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्यके इनका निरन्तर बन्ध साधिक तीन पल्य काल तक होता रहता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है। पञ्चन्द्रिय जाति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । तथा इनके अजघन्य अनुभागबन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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