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________________ कालपरूवरणा २७५ एग०, उ० बेसम० । अन० ज० एग०, उक्क० अणंतकालमसंखेंज्जपोग्गलपरियट्ट। वेउव्वि०-वेवि० अंगो० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० देवगदिभंगो । समचदु०-पसत्थ०--सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उक्क० बेछावहि साग० सादि० तिण्णि पलि० देसू० । ओरालि०अंगो० ज० ज० एग०, उ० वेसम । अज० ज० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । तित्थ० ज० एग० । अज० ज० अंतो०, उक्क० तेतीसं० सादि। एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल देवगतिके समान है । समचतुरन संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य साधिक दोछियासठ सागर है । औदारिक प्राङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें जितनी प्रकृतियों गिनाई हैं, उनका जघन्य अनुभागबन्ध एक समय तक ही होता है; क्योंकि इनका जघन्य अनुभागबन्ध यथास्वामित्व अपनी-अपनी बन्ध व्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें ही सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा ये सब ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धके तीन भङ्ग बन जाते हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त। उनमेंसे अनादि अनन्त भङ्ग अभव्योंके होता है। अनादि-सान्त भङ्ग भव्योंके अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके पूर्व तक होता है और सादि-सान्त भङ्ग उन भव्योंके होता है, जिन्होंने यथायोग्य सम्यक्त्व पूर्वक उपशमश्रेणि आरोहण किया है। इनमेंसे तीसरे भङ्गकी अपेक्षा इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके बाद लौटकर पुनः इनका बन्ध प्रारम्भ होने पर इनका पुनः बन्धव्युच्छित्तिके योग्य अवस्थाके उत्पन्न करनेमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। यथा किसी भव्यने अर्धपुद्गल परिवर्तनके प्रथम समयमें उपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर मिथ्यात्वकी बन्धव्युच्छित्ति की। पुनः वह मिथ्यात्वमें आकर उसका बन्ध करने लगा, तो उसे पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करनेमें अन्तर्मुहूर्त काल लगेगा। इसी प्रकार अन्य प्रकृत्तियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त घटित कर लेना चाहिए। तथा अर्धपुद्गल परावर्तन कालके प्रारम्भमें और अन्तमें इन सब प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति करने पर इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त होता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है । सातावेदनीय आदिक दूसरे दण्डकमें जितनी प्रकृतियों कही से कुछका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके और कुछका मध्यम परिणामवाले मिथ्यादृष्टिके होता है, यतः इनका जघन्य अनुभागबन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक चार समय तक होता रहता है; क्योंकि १. ता. प्रतौ प्रज० एग० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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