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________________ कालपरूषणा २५७ ४६७. अवगदवे. पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-सादा०--जस०--उच्चा०पंचंत० उक्क० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० अंतो० । ४६८. कोधादि०४ तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि० उक्क० एग० । अणु० जे० भागबन्धके कालको ओषके समान कहा है । नरकमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। इतने काल तक इस जीवके पुरुषवेद, मनुष्यद्विक और प्रथम संहननका नियमसे बन्ध होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । तिर्यश्चगतित्रिकके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण ओघसे कहा है । यहाँ भी यह बन जाता है, क्योंकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव नपुंसक ही होते हैं, अतः यह प्ररूपणा ओघके समान की है। नपंसकवेदमें देवगतिचतुष्कका निरन्तर बन्ध सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यश्चके ही सम्भव है और ऐसे जीवके न तो जीवनके प्रारम्भसे सम्यग्दर्शन होता है और न यह भोगभूमिज होता है और कर्मभूमिमें इनकी उत्कृष्ट अायु पूर्वकोटिसे अधिक नहीं होती, अतः यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है । नरकमें पश्चन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास और त्रस चतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है, तथा अन्तमुहर्त काल तक आगे-पीछे भी इनको बन्ध होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। यहाँ औदारिक आङ्गोपाङ्गके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर नारकियोंकी मुख्यतासे प्राप्त होता है। ओघसे यह काल इतना ही बनता है, अतः इसका काल अोषके समान कहा है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण ये ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ है, अपनी व्युच्छित्तिके पूर्वतक इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है, क्योंकि नपुंसकवेदकी इतनी कायस्थिति है। नरकमें सम्यक्त्व के कालके भीतर समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका ही बन्ध होता है; इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका नहीं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तीर्थंकर प्रकृतिका तीसरे नरक तक ही बन्ध सम्भव है। उसमें भी ऐसा जीव साधिक तीन सागरकी प्रायसे अधिक आय लेकर वहाँ उत्पन्न नहीं होता. इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है । शेष कथन सुगम है। ४६७. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकसूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें और शेष अप्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उपशमश्रेणि से उतरते हुए अपगतवेदके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका एक समय काल कहा है। तथा अपगतवेदके शेष समयमें इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है। किन्तु अपगतवेदका जघन्य काल एक समय है और अपगतवेदी होनेके प्रारम्भ कालसे लेकर उपशान्तमोह तकका काल व उतर कर पुनः सवेदी होने तकका काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। ४६८. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट १. ता. प्रतौ णिमि. अणु० ज.इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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