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________________ ہم سب یہ ہے ~ २४२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उक्क० तेतीसं० देसू० । उज्जोवं ओघं । तित्थय० उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० एग०, उ० तिण्णि साग० सादि० । सेसाणं उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० एग०, उ० अंतो०। एवं सत्तमाए पुढवीए । छसु उवरिमासु एवं चेव । णवरि तिरिक्खगदि-तिरिक्रवाणु०-उज्जो०-णीचा० सादभंगो । सेसाणं अप्पप्पणो हिदी भाणिदव्वा । ४७६.तिरिक्खेसु पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० उ० ज० एग०, उक्क० बेसम० अणु० ज० एग०, उक्क० अणंतका० । सादासाद०-छण्णोक०-आयु०४-णिरय०-मणुस०समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। उद्योतका भंग ओषके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना हिए। प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें इसी प्रकार भा है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। शेष प्रकृतियोंके अनुस्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी-अपनी उत्कृष्टि स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जीवन भर निरन्तर अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। पुरुषवेद आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि नारकीके होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। उद्योतके विषयमें जो अोघ प्ररूपणामें काल कहा है, वही यहाँ भी जानना चाहिए। ओघप्ररूपणासे यहाँ कोई विशेषता न होनेसे यह ओघके समान कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध तीसरे नरक तक होकर भी साधिक तीन सागरकी आयुवालेसे अधिक आयुवाले नारकीके नहीं होता, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है। इन पर्वोक्त प्रक्रतियोंके सिवा शेष जितनी प्रकतियाँ नरकमें बँधती है वे सब परावतेमान है. अतः उनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त प्राप्त होनेके कारण उक्त प्रमाण कहा है। सामान्यसे नारकियोंमें यह जो काल कहा है, वह मातवीं पृथिवीमें अविकल घटित हो जाता है, इसलिए सातवीं पृथिवीके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा है। प्रथमादि छह पृथिवियोंमें सब काल इसी प्रकार है । मात्र जहाँ पर पूरा तेतीस सागर या कुछ कम तेतीस सागर काल कहा है,वहाँ पर अपनी-अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट स्थितिको ध्यानमें रखकर यह काल कहना चाहिए। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिके कालका विचार प्रथमादि तीन पृथिवियोंमें ही करना चाहिए। चौथी आदि शेष चारों पृथिवियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके कालका विचार नहीं करना चाहिए। ४७६. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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