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________________ कालपरूवणा २४१ ४७८. णिरएमु पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छत्त सोलसफ०-भय-दु०-तिरिक्ख०पंचिं०-ओरालि०-तेजा०.-क०-ओरालि०अंगो०--पसत्थापसत्य०४-तिरिक्रवाणु०-- अगु०४-तस०४-णिमि०-णीचा०-पंचंत० उक्क० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अणुज० एग०, उक्क० तेत्तीसं० । पुरिस०-मणुसग०-समचदु०-वजरि०-मणुसाणु०--पसत्थवि०सुभग-सुस्सर-आदें--उच्चा० उ० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० ज० एग०, अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल एकसौ पचासी सागर कहा है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण ये ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं-अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि-सान्त । अनादि-अनन्त विकल्प अभव्योंके प्राप्त होता है। अनादि-सान्त विकल्प उन जीवोंके होता है जिन्होंने क्रमसे सम्यक्त्व और संयमको प्राप्त कर और क्षपकश्रेणि आरोहण कर बन्धव्युच्छित्तिके समय इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है। तथा सादि-सान्त विकल्प उन जीवोंके होता है जो उपशमश्रेणी पर चढ़कर इनकी बन्धव्युच्छित्ति करनेके बाद पुनः उतर कर इनका बन्ध करने लगे हैं। यहाँ सादि-सान्त विकल्पका अधिकार है। उसकी अपेक्षा इन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहनेका कारण यह है कि जो जीव अर्धपुदगल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें उपशमश्रेणी पर चढ़ा और इसके अन्तमें वह क्षपकश्रेणी पर चढ़ा, उसके कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल तक इन प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्टबन्ध देखा जाता है। अतः इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। जो उत्तम भोगभूमिका जीव समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रका बन्ध कर रहा है वह यदि जीवनके अन्त में वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रथम छिया सागर काल तक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहा । पुनः सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया और साधिक छियासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहा। उसके इतने काल तक इन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है। अतः इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक दो छियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य प्रमाण कहा है । नरकमें औदारिक आङ्गोपाङका निरन्तर बन्ध होता है और नरककी उत्कृष्ठ आय तेतीस सागर है। तथा ऐसा जीव नरकमें जानेके पहले और निकलने के बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक आङ्गोपाङ्गका बन्ध करता है. अतः औदारिक आङ्गोपाङ्गके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर प्रमाण कहा है। जो तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला सम्यग्दृष्टि मनुष्य तेतीस सागर आयुका वध कर देवोंमें उत्पन्न होता है,उसके साधिक तेतीस सागर काल तक तीर्थङ्कर प्रकृतिका अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध देखा जाता है, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। ४७८. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। पुरुपवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्पभनाराचसंहनन, मनुष्यागत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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