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________________ सामित्तपरूवणा २२७ ओरालि०अंगो० ज० क. ? अण्ण० तिगदि० तप्पा०संकि० । ४५६. पुरिस० पंचिंदि०-तेजा०-क०-पसत्थवण्ण०४-अगु०३-तस०४-णिमि० ज० क०१ अण्ण० तिगदि० मिच्छा० सव्वसंकि० । ओरालि०-ओरालि०अंगो०-उज्जोव० का? देव-सव्वसंकि वेउचि०-वेउवि०अंगो० ज० क.? अण्ण तिरि० मणुस० सव्वसंकि० । आदाव० ओघं० । सेसं इत्थिवेदभंगो। ४६०. णqसगे णिरयगदि-देवगदि-चदुजादि दोआणु०-थावरादि०४ ज० क.? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छा० परि०मज्झिम० ! ओरालि०-ओरालि०अंगो०उज्जो० ज० क० ? अण्ण० णेरइ० मिच्छा० सव्वसंकि० । पंचिंदि०-तेजा.-क-पसत्यवण्ण०४-अगु०३-तस०४-णिमि० ज० क. ? अण्ण. तिगदि० मिच्छादि० सव्वसंकि० । सेसं ओघं। णवरि आदावं तिरिक्वोघं । ४६१. अवगद० पंचणा०चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंत० ओघं। सादा०-जस०उच्चागो० ज० क.? अण्ण० उवसा० परिवदमा० चरिमे जह० अणु० वट्ट० । उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। औदारिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर तीन गतिका मिथ्यावष्टि जीव उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। ४५६. पुरुषवेदी जीवोंमें पञ्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभागवन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर तीन गतिका मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। आतपका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। ४६०. नपुंसकवेदी जीवोंमें नरकगति, देवगति, चार जाति, दो आनुपूर्वी और स्थावरादि चारके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। औदारिकशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि नारकी उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। पञ्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कामणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर तीन गतिका मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि आतप प्रकृतिका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। ४६१. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाला उपशामक गिरते हुए अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। १. ता. प्रतौ तप्पा० इति पाठ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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