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________________ २२० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे याव सहस्सार ति पढमपुढविभगो। आणद याव णवगेवज्जा त्ति सो चेव भंगो। णवरि तिरिक्व०३ णत्थि० । मणुस-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०पसत्थवण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०३-तस०४-णिमि० जह० कस्स ? अण्ण० मिच्छा. सव्वसंकि० । ४५०. अणुदिस याव सव्वह त्ति पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-पंचणोक०अप्पसत्थवण०४-उप०-पंचत० जह० कस्स. ? अण्ण० सागा० सव्वविसु०। सादादिचदुयुगल० जह० कस्स०? अण्ण परिय०मज्झिम० । अरदि-सोग० जह० कस्स० ? अण्ण० सागा. तप्पा०वि०। मणुसाउ० जह० कस्स०? अण्ण० जहणियाए पज्जतणिव्वत्तीए णिवत्त० परिय०मज्झिम०। मणुस०-पंचिदि०-ओरालि०-तेजा-क०समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थ०४--मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थ०-उच्चा० जह० कस्स० ? अण्ण सव्वसंकि० । ४५१. एइंदियाणं पंचिंदि०तिरि० अपज्जचभंगो । णवरि बादरस्से ति भाणि Annanon Annnnnnnnnnnnnnnnnranama जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन तीन प्रकृतियोंका ( तथा तियंञ्चायुका ) बन्ध नहीं होता। तथा इनमें मनुष्यगति, पञ्चदिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। ४५०, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। साता-असाता, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यश कीर्तिअयशःकीर्ति इन चार युगलोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। अरति और शोकके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर देव उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? जघन्य पर्याप्त निवृत्तिसे निवृत्तमान और मध्यम परिणामवाला अन्यतर देव मनुष्यायुके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लिष्ट अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। ४५१. एकेन्द्रियोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है ता. प्रतौ मणुसाउ० उ० (जह.) क०, प्रा० प्रती मणुसाउ० उक्क० कस्स इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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