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________________ २१० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४४०. खइग० ओधिभंगो । णाणावरणादि० सत्थाणे सव्वसंकि० । वेदगे ओधि०भंगो । णवरि खइगपगदीणं अप्पमत्त० सव्वविसु० । उवसम० ओधिभंगो। ४४१. सासणे पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-सोलसक०-इत्थि०-अरदि-सोमभय-दु०-तिरिक्ख०-वामण०--वीलिय०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०--उप०-अप्पस०अथिरादिछ०- णीचा०-पंचंत० उक्क० कस्स० ? अण्ण० चदुगदिय० सागा० सव्वसंकि० । सादा०-पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-पसत्थवण्ण०४-अगु०३-पसत्थवि०तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा० उक्क० कस्स० ? अण्ण० चदुगदि० सागा० सव्वविगु० । पुरिस०-हस्स-रदि-तिण्णिसंहाण-तिण्णिसंघडण. उक्क० कस्स० १ अण्ण. चदुग० तप्पा०संकिलि० । तिरिक्वायु०-मणुसायु० उक्क० कस्स०? अण्ण तिरिक्खमणुस० सागा० तप्पा०विसु० । देवाउ० उक्क० कस्स० ? अण्ण० मणुस. तप्पा. शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। विशेषार्थ-यहाँ अभठयोंमें जिन ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान कहा है, वे ओघ प्ररूपणाके समय गिनाई ही गई हैं। उनकी संख्या ५६ है, इसलिए वहाँसे जान लेनी चाहिए। यहाँ अन्तमें शेष प्रकृतियोंका स्वामित्व ओघके समान कहा है पर उनका नामनिर्देश नहीं किया है । वे ये हैं-एकेन्द्रियादि चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण । ४४०. क्षाधिसम्यग्दृष्टियोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग हैं। इतनी विशेषता है कि ज्ञानावरणादिकका स्वस्थानमें सर्वसंक्लिष्ट क्षायिकसम्यग्दृष्टिके स्वामित्व कहना चाहिए। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि ३२ क्षपक प्रकृतियाँ हैं । उनका यहाँ सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयत जीवके स्वामित्व कहना चाहिए। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-३२ क्षपक प्रकृतियोंका अवधिज्ञानीके जिस स्थानमें उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है. उसी स्थानमें उन प्रकृतियों का उपशमसम्यग्दृष्टिके स्वामित्व कहना चाहिए। अन्तर इतना है कि अवधिज्ञानीके आपकणिमें कहना चाहिए और उपशम सम्यग्दृष्टिके उपशमश्रेणिमें । ४४१. ससादनसम्यग्दृष्टियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, वामनसंस्थान, कीलकसंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्वसंक्लेशयुक्त अन्यतर चार गतिका जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, स्थिरादि छह, निर्माण और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, और सर्वविशुद्ध अन्यतर चार गतिका जीव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन संस्थान और तीन संहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर चार गतिका जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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