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________________ अज्झवसाणसमुदाहारे अविभागपलिच्छेदपरूवणा १६९ ३७२. अविभागपलिच्छेदपरूवणदाए ऍककम्हि कम्मपदेसे केवडिया अविभागपलिच्छेदा ? अणंता अविभागपलिच्छेदा' सव्वजीवेहि अणंतगणा । एवडिया अविभागपलिच्छेदा । विशेषार्थ-यहाँ अनुभागका प्रकरण होनेसे अध्यक्सानपदसे अनुभाग अध्यवसानोंका प्रहण किया है। अनुभागबन्धके कारणभूत ये अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातलोकप्रमाण होते हैं। उन्हींका यहाँ मूल में कहे गये चारह अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर विचार किया है। षटखण्डा. गमके वेदनाखण्डके अन्तर्गत वेदनाभावविधान अनुयोगद्वारकी दूसरी चूलिकामें भी इसका विचार किया गया है। अनुयोगद्वारोंके नाम भी वे ही हैं। विशेष जिज्ञासुओंको यह विषय वहाँसे जान लेना चाहिए। अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा ३७२. अविभागप्रतिच्छेद-प्ररूपणाकी अपेक्षा एक-एक कर्मप्रदेश में कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ? अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं जो सव जीवोंसे अनन्तगुणे होते हैं। इतने अविभाग. प्रतिच्छेद होते हैं। विशेषार्थ-बुद्धिके द्वारा एक परमाणुमें स्थित शक्तिका छेद करने पर सबसे जघन्य शक्त्यंश का नाम प्रतिच्छेद है। यह शक्त्यंश अविभाज्य होता है, इसलिए इसे अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। प्रकृतमें अनुभाग शक्ति विवक्षित है । कर्मके प्रत्येक परमाणुमें इस अनुभागशक्तिको देखने पर वह सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदोंको लिए हुए होती है। यद्यपि यह अनुभागशक्ति किसी कर्मपरमाणुमें जघन्य होती है और किसी में उत्कृष्ट,पर उसमें से प्रत्येकका सामान्य प्रमाण उक्त प्रमाण ही है । उदाहरणार्थ-एक शुक्ल वस्त्र लीजिए। उसके किसी एक अंशमें कम शुक्लता होती है और किसी में अधिक। अतएव जिसप्रकार उस वस्त्रमें शक्ल गणका तारतम्य दिखाई देता प्रकार उन कर्मपरमाणुओं में भी अनुभागशक्तिका तारतम्य दिखाई देता है। इससे विदित होता है कि इस तारतम्यका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। यहाँ तारतम्यका जो भी निदर्शक है, उसीका नाम अविभागप्रतिच्छेद है । ऐसे अविभागप्रतिच्छेद एक-एक कर्मपरमाणुमें अनन्त होते हुए भी सब जीवोंसे अनन्तगुण होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँ मूल में वर्गणाप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणाको अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाके अन्तर्गत लिया है, इसलिए आगे स्थानप्ररूपणाको उत्पन्न करने के लिए उसका विचार करते हैं-यहाँ हमने एक-एक कर्म परमाणुमें अनन्त अविभागप्रतिच्छेद बतलाए हैं। ये सबसे जघन्य अविभाग प्रतिच्छेद हैं। इमीप्रकार दूसरे, तीसरे, आदि-अनन्त कर्मपरमाणुओंमें प्रथम कर्मपरमाणुके समान अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, इसलिए इनमेंसे प्रत्येक कर्मपरमाणुकी वर्ग और इन सब कर्मपरमाणु ओंकी वर्गणा संज्ञा है। यहाँ एक वर्गणामें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण वर्ग होते हैं। पुनः इनसे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदको लिए हुए अनन्त वर्गों का समुदायरूप दूसरी वर्गणा होती है। इसी प्रकार आगे तीसरी आदि वर्गणाएँ एक-एक अविभागप्रतिच्छेदके अधिकक्रमसे उत्पन्न करनी चाहिए। ये वर्गणा अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं जो मिलकर एक स्पर्धक कहलाती हैं। इन वर्गणाओंमें क्रमसे एक-एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि देखी जाती है। अतः क्रमसे स्पर्धा करता है अर्थात् वृद्धि होती है, इसलिए इसकी स्पर्धक संज्ञा है। फिर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदोंका अन्तर देकर दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका प्रथम वर्ग लाना चाहिए । अर्थात प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्गमें जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, उनसे सब जीव राशिकी २. ता आ० प्रत्यौः-पलिच्छेदो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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