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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३६९. मणुसपञ्जत्त-मणुसिणीसु मणपजव' संजद० ओघं। णवरि संखेंजगणं कादव्वं । णिरएसु सत्तण्णं क. सवत्थोवा अवट्टि । अणंतभागवड्डि-हाणी दो वि तु० असंगु० । असंखेंजभागवड्डि-हाणी दो वि तु० असं०गु० । एवं उवरि ओघं० । आउ० मूलोघं । एवं णिस्यभंगो सवाणं असंखेंज-अणंतरासीणं । संखेंजरासीणं पितं चेव । णवरि संखे कादव्वं । ३७०. अवगद० धादि०४ सव्वत्थोवा अवत्तव्यबं० । अणंतगणवड्डी संखेज्जगणा। अणंतगणहाणी संखेंजग०। वेद ०णामा०-गोदा० सव्वत्थोवा अवत्त० । अणंतगुणहाणी संखेंजगु० । अणंतगणवड्डी संखेंजगः । एवं सुहुमसंप० । णवरि अवत्त० मोहणीयं च णत्थि । एवं वडिबंधो समत्तो। अज्झवसाणसमुदाहारो ३७१. अज्झवसाणसमुदाहार त्ति तत्थ इमाणि दुवालस अणियोगदाराणि-अविभागपलिच्छेदपरूवणा हाणपरूवणा अंतरपरूवणा कंडयपरूवणा ओजजुम्मपरूवणा छट्ठाणपरूवणा हेहाणपरूवणा समयपरूवणा वडिपरूवणा यवमज्झपरूवणा पज्जवसाणपख्वणा अप्पाबहुगें'त्ति । ३६६. मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी, मनःपर्ययज्ञानीऔर संयत जीवों में आपके समान भंग है इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणे करने चाहिए। नारकियों में सात कर्मों के अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुरणे हैं। आगे इसी प्रकार ओवके समान जानना चाहिए। आयुर्मका भंग मूलोघके समान है। इसी प्रकार नारकियों के समान सब असंख्यात और अनन्त रासियोंका भंग करना चाहिए। संख्यात रासियोंका भंग भी इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणा करना चाहिए। ___ ३७०. अपगतवेदी जीवों में चार घातिकमाँ के अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुरणे हैं। इनसे अनन्तगणहानिके बन्धक जीव संख्यात. गुणे हैं। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें भवक्तव्य पद र मोहनीय कर्मका बन्ध नहीं है । इस प्रकार वृद्धिबन्ध समाप्त हुआ। अध्यवसानसमुदाहार ३७१. अध्यवसानसमुदाहारका प्रकरण है। उसमें ये बारह अनुयोगद्वार होते हैं-अवि. भागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, भाजयुग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्व। आ• प्रतौ मणुसपज. इति पाठः । २. ता० प्रती यवमजनपरूवणा अप्पाबहुगे इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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