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________________ १५६ पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं पंचिंदि०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज.. चक्खुदं०-अचक्खुदं०-भवसि०-मिच्छा०-सण्णि-आहारग ति ओघं । ३४९. ओरालिय० मणुसिभंगो। ओरालियमि० घादि०४ सम्वत्थोवा जह० बड्डी अवट्ठाणं । जह० हाणी अणंतगु० । सेसाणि तिणि वितु। एवं वेउत्रियमि० । आहार-आहारमि० देवभंगो। कम्मइ० धादि०४-गोद० सव्वत्थोवा जह० वड्डी । जह ० हाणी अवट्ठाणं अणंतगु० । सेसाणं ओघं । एवं अणाहार० । ३५०. इत्थि०-पुरिस०-णqसग० मणुसि०भंगो । णवरि णवुस ० गोद० णिरयभंगो। अवगद० सत्तण्णं क० सव्वत्थोवा जह० हाणी । वड्डी अणंतगु० । एवं सुहुमसंप० । ३५१. आभि०-सुद०-ओधि० गोद० सव्वत्थो० जह० हाणी। वड्डी अवट्ठाणं अणंतगु० । सेसाणं ओघं । एवं मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-ओधिदं०-सम्मादि०. उवसमसम्मादिट्टि ति । परिहार० गोद० ओधिभंगो। घादि०४ सव्वत्थोवा जह. हाणी। सेसाणं अणंतगु० । सेसं ओघं। संजदासंजद० घादि०४ सम्वत्थोवा जह० हाणी । वड्डी अवट्ठाणं अणंतगु० । सेसं ओधिभंगो । क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके ओघके समान अल्प बहुत्व है। ३४९. औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यनियोंके समान भंग है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें चार घातिकर्मोंकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य हानि अनन्तगुणी है। शेष कर्मोके तीनों ही पद तुल्य हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवोंके समान भङ्ग हैं। कार्मणकाययोगी जीवोंमें चार घाति कर्म और गोत्र कर्मकी जघन्य वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान अनन्तगुणे हैं। शेष काँका भङ्ग ओघ के समान है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।। २५०. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों में मनुष्यनियों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदी जीवों में गोत्र कर्मका मन नारकियों के समान है। अपगत सात कर्मोकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए। ३५१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुर ज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें गोत्रकर्मकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य वृद्धि और जघन्य अवस्थान अनन्तगुणे हैं। शेष कर्मोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें गोत्रकर्मका अल्पबहत्त्व अवधिज्ञानी जीवों के समान है। चार घातिकर्मोंकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। शेष बृद्धि और अवस्थान अनन्तगुरणे हैं। शेष कर्मों का भंग ओघके समान है। संयतासंयत जावोंमें चार घातिकमांकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य वृद्धि और जघन्य अवस्थान अनन्तगुणे हैं । शेप कर्मोंका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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