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________________ १५४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वट्ट० तस्स जह० हाणी। अवट्ठाणं अप्पमत्तस्स । सेसं मणुसि भंगो। एवं पुरिस० । एवं चेव णqसग० । णवरि गोद० ओघभंगो। अवगदे धादि०४ ओघं । वेद०णामा०-गोदा० जह० वड्डी कस्स० ? अण्ण० उवसामय० विदियसमयअवगदवेदस्स तस्स जह० वड्डी। जह• हाणी कस्स० ? अण्ण० उवसाम० परिवदमा० दुसमयसुहुमसं० जह• हाणी । एवं सुहुमसंप० । ३३६. मदि०-सुद० घादि०४ जह० वड्डी कस्स० ? अण्ण० मणुस० मणुसिणीए वा संजमादो परिवद गस्स दुसमयमिच्छा० तस्स जह० वड्डी। जह० हाणी कस्स० ? अण्ण० मणुस. सागार० सव्व विसु. संजमाभिमुह० चरिमे जह० अणु० वट्ट० तस्स जह० हाणी। जह० अवट्ठाणं कस्स० ? अण्ण० यो तप्पाओग्गउक्कस्सियादो विसोधीदो पडिभग्गो तप्पाओग्गजह. पदिदो अणंतभागेण वड्डिदृण अवविदस्स तस्स जह० अवट्ठाणं । सेसं णिरयोघं । आउ० ओघं । एवं विभंगे [अभवसि०] मिच्छा० । ३३७. आभि० सुद०-ओधि० [ओघं । णवरि मोद० जह०] वड्डी कस्स० १ अण्ण० यो तप्पा० उक्कस्सगादो संकिलेसादो पडिभग्गो तप्पाओग्गजह० पदिदो तस्स जह० वड्डी । तस्सेव से काले जह० अवट्ठाणं । जह० हाणी कस्स० १ अण्ण० चदुग० असंजद० हानिका स्वामी है। जघन्य अवस्थानका स्वामी अप्रमत्तसंयत जीव है। शेष कर्मों का भंग मनुष्यनियोंके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदी जीवों में गोत्रकर्मका भंग ओघके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें चार घातिकर्मोंका भंग ओघके समान है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर उपशामक द्वितीय समयवर्ती अपगतवेदी जीव है, वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है? जो अन्यतर गिरनेवाला उपशामा द्विसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीव है वह जघन्य हानिका स्वामी है। इसी प्रकार सुमसाम्परायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिए। ३३६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें चार घाति कर्मोकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है? जो अन्यतर मनुष्य या मनुष्यनी संयमसे गिरकर द्विसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव है.वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कोन है? जा साकार जागृत सवविशुद्ध संयमके अभिमुख अन्यतर मनुष्य या मनुष्यिनी जीव अन्तिम जघन्य अनुभागबन्धमें अवस्थित है. वह जघन्य हानिका स्वामी है। जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विद्धिसे प्रतिभग्न होकर तत्यायोग्य जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ है और अनन्तभाग वृद्धि करके अवस्थित है, वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है। शेष कर्मोंका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। आयुकर्मका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार विभंगज्ञानी, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए। ___ ३३७. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञाना जीवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि गोत्रकर्मकी जवन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है, वह जघन्य वद्धिका स्वामी है। तथा उसीके तदनन्तर सत्यमें जघन्य अवस्थान होता है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त, मिथ्यात्वक अभिमुख और आन्तम अनुभागवन्धम अवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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