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________________ महाधे श्रणुभाग बंधा हियार ० [जरासी] पि एवं [चैव ] । णवरि' यहि आवलि • असंखे • तम्हि संखेजसम० । यम्हि पलिदो० असंखे तम्हि अंतोमुहु० । णवरि सांतररासीणं सत्तण्णं क० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखेज • अंतोमु० । भुज ०-अप्प० अंतराणुगमो १३८ ३००. अंतराणुगमेण दुवि०-- ओघे० आदे० । ओघे० सत्तण्णं क० अवत्त० जह० एग०, उक्क० वासपुध० । सेसाणं णत्थि अंतरं । आउ० सव्वपदा णत्थि अंतरं । एवं कायजोगि ओरालि० - अचक्खुर्द ० - भवसि ० आहारगति । ३०१. मेरइएस सत्तण्णं क० भुज० अप्प० णत्थि अंतरं । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० असंखैज्जा लोगा । एवं आउ० अवट्ठि० । आउ० भुज० - अप्प ० - अवत्त० सत्तसु वि [ पुढवीसु ] जस्स यं पगदिअंतरं तस्स तं कादव्वं । एवं याव अणाहारगति णेदव्वं । वरि मणुसअप ० - वेउव्त्रियमि० - आहार ०२ - सुहुमसं प ० - उवसम० - सासण० सम्मामि० पगदिअंतरं कादव्वं । अवगद ० -सुहुमसंप० सेढीए साधेदव्वं । मार्गणाओं में भी काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल कहा है, वहाँ पर संख्यात समय काल कहना चाहिये और जहाँ पर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल कहा है, वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त काल कहना चाहिए। उसमें भी दोनों राशियों में इतनी विशेषता है कि सान्तरमार्गणाओं में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ । अन्तरानुगम ३०० अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे सात कर्मों के वक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । शेष पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके सब पदके बन्धक जीवों का अन्तर काल नहीं है । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । ३०१. नारकियों में सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । इसी प्रकार आयुकर्म के अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल जानना चाहिए । आयुकर्मके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका तथा सातों ही पृथिवियोंमें जिसका जो प्रकृतिबन्धका अन्तरकाल हो, उसका वह कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । इतनी विशेषता हैं कि मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकद्विक, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में प्रकृतिबन्धका अन्तरकाल कहना चाहिए। अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवों में श्रेणीके अनुसार अन्तरकाल साथ लेना चाहिए । इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । १ ता० प्रतौ एवं असंखेजरासीणं पि एव ( ? ) णवरि, आ० प्रतौ एवं असंखेज्जरासीणं पि णवरि इति पाठ: । २ ता० प्रतौ सांतरा (र) रासीणं, भा• प्रतौ सांतरासीणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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