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________________ भुजगार बंधे फोसणागमो १३५ -तेउ० ओघभंगो तिरिक्खोधं एइंदि० सुडुम ० पुढचि ० आउ० तेउ०- वाउ०- सुहुम पुढवि आउ०वाउ ० - वणप्फदि-णियोद० तेसिं सुहुमा० काय जोगि ओरालि० - ओरालियमि०-कम्मइ०पुंस ० - कोधादि० ४ - मदि० - सुद० - असंज ० - अचक्खु०- तिण्णिले० भवसि ० - अन्भवसि ०मिच्छा० असण्णि आहार० - अणाहारग ति । २१. णिरएस सत्तणं क० सव्वपदा छच्चोस० । आउ० सव्वपदा खेत्तभंगो । एवं अप्पप्पणी फोसणं णेदव्वं । पंचिंदियतिरि०३ - पंचिं ० तिरि०अप०' सत्तण्णं क सव्वपदा लोग • असं० सव्वलोगो । आउ० सव्वपदा खेत्तभंगो । एवं सव्वअपत्ताणंसव्वविगलिंदि० - बादरपुढ० आउ० तेउ०- बादरवणप्फ० पत्तेय० पञ्जत्ताणं च । मणुस ० ३. एवं चैव भंगो' । ० । २२. देवाणं सत्तणं क० सव्वप० अट्ठ-णव० । आउ० सच्चपदा अट्ठचों ० एवं सव्वाणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं । २६३. बादरएइंदि (०-पजत्तापज० सत्तण्णं क० सव्वपदा सव्वलोगो । आउ सम्पदा लोगस्स संखेज दि० । एवं बादरवाउ०- बादरवाउ० अप० । बादरपुढ० - आउ० शेष पदोंके तथा आयुकर्म के सब पदोंके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्वर्शन किया है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यंच, एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय सूक्ष्म, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म निकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद और इन दोनोंके सूक्ष्म, काययोगी, औदारिककाययोगी, श्रदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चतुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । २६१. नारकियों में सात कर्मों के सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आयुकर्मके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। इस प्रकार अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिक और पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीवों में सात कर्मों के सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्म के सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये । मनुष्यत्रिमें इसी प्रकार भंग है । २६२. देवोंमें सात कर्मो के सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए । २६३. बादर एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके सख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार वादर वायुकायिक तथा उनके अपर्याप्त १ ता० प्रतौ दव्वं । पंचिदियतिरि०अप० इति पाठः । २ ता० प्रतौ एचे (सेव) भंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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