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________________ १३० महाणुभागबंधाहियारे ओघं । अवगद • सत्तण्णं क० भुज० अप्प० श्रवत्त० णत्थि अंतरं । एवं सुदुमसंप० । ० 0 | २८१. कोधादि ०४ मणजोगिभंगो । मदि० सुद० असंज० - अब्भवसि ० - मिच्छा० बुंसगभंगो । विभंगे सत्तण्णं क० आउ० णिरयभंगो । आमि० सुद० अधि० सत्तण्णं क० भुज ० - अप्प० ओघं । अवट्ठि ० जह० एग०, उक० छावट्टिसाग० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० छावद्विसा० सादि० । आउ० अवडि० णाणा० भंगो | सेसपदा ओघं । एवं ओधिदं ० - सम्मादि ० खड्ग० वेदग० । णवरि खइग० उक्क० तेत्तीसं० सादि० । वेदगे छावट्टि ० सू० । मणपज्ज० सत्तण्णं क० भुज० अप्प० ओघं । अवट्टि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क ० पुव्व कोडी सू० । आउ० तिष्णिप० जह० एग०, अवत्त० जह० तो ०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देस्र० । एवं संजदा० । एवं चैव सामा० - छेदो० । णवरि सत्तण्णं क अवत्त० णत्थि । परिहार० आउ० मणपज्जव ० O ० 0. भंगो । सेसं सामाइ० भंगो । एवं संजदासंजद० । चक्खुदं० सण्णि० तसपज्जतभंगो । 1 २८२. किण्ण० - णील० काउ० सत्तण्णं क० अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सारस सत्त सागरो० सादिरे० । सेसं ओघं । आउ० णिरयभंगो' । तेउ० सोधम्मभंगो । । अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवों के जानना चाहिये । 1 २८१. क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में मनोयोगी जीवोंके समान भंग है । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य और मिध्यादृष्टि जीवोंमें नपुंसकवेदी जीवोंके समान भंग है । विभंगज्ञानी जीवों में सात कर्म और आयुकर्मका भंग नारकियोंके समान है । श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदका भंग ओघ के समान हैं । अवस्थितिपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है । आयुकर्म के अवस्थित पदका भंग ज्ञानावरण के समान है। शेष पदोंका भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें कुछ कम छियासठ सागर है । मज:पर्ययज्ञानी जीवों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतर पदका भंग श्रोघके समान है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इनका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। आयुकर्मके तीनों पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इनका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है । इसी प्रकार संयत जीवों के जानना चाहिये । इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें सात कर्मों का अवक्तव्यपद नहीं है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें आयुकर्मका भंग मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। शेष कर्मोंका भंग सामायिकसंयत जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। चतुदर्शनी और संज्ञी जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवों के समान भंग है। २८२. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर, सत्तरह सागर और साधिक सात सागर है । शेष १. ता० प्रतौ अस्थि इति पाठः । २ ता० प्रतौ णिरभोभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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