SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ अंतरपरूवणा २५७. जह० पगदं। दुवि०'-ओषे० आदे०। ओषे० घादि०४ जह० जह. एग०, उक्क० छम्मासं० । अज० णत्थि अंतरं । वेद०-आउ०-णाम. जह० अज० णत्थि अंतरं। गोद० जह० जह० एग०, उक० असंखेंजा लोगा। अज० णत्यि अंतरं । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि० अचम्खु०-भवसि०-माहारग ति। २५८. तिरिक्खेसु घादि०४-गोद० ज० जह० एग०, उक्क० असंखेंजा लोगा। अज० णत्थि अंतरं । वेद०-आउ०-णामा० जह० अज० णत्थि अंतरं० । एवं ओरालियमि०. उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण कहा है। तथा अपगतवेद और सूदमसाम्परायका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना होनेसे इनमें चार घाति कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। उपशमसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण होनेसे इसमें वेदनीय, नाम और गोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा उपशमसम्यक्त्वका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल सात दिन-रात होनेसे इसमें सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल सात दिन-रात कहा है। शेष कथन सुगम है। २५७. जघन्यका प्रकरण है। उसकी उपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और आदेश। ओघसे चार घातिकर्मोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार श्रोधके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य .और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-क्षपक श्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना होनेसे यहाँ ओघसे चार घाति कोके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है। वेदनीय, आयु और नामकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है,इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ही संभव नहीं है। गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सातवें नरकमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए नारकीके होता है। फिर भी ऐसी अवस्थामें जघन्य अनुभागबन्ध होना ही चाहिए ,ऐसा एकान्त नियम नहीं है। यह यदि अन्तरसे हो तो कम से कम एक समयके अन्तरसे भी हो सकता है और अधिक से अधिक असंख्यात लोक प्रमाण कालके अन्तरसे भी हो सकता है। यही कारण है कि भोघसे गोत्रकर्मके जघन्य अनभागबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है,यह स्पष्ट ही है। मूलमें काययोगी आदि जितनी मागंणाएँ गिनाई हैं, उनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है। २५८. तिर्यञ्चों में चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। अजघन्य अनुभागके बन्धक ता. प्रतौ जह. वि. इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy