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________________ ११८ __ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २५६. एवं संखेज्ज-असंखेज्ज-अणंतरासोणं पि। [गवरि] इत्थि०-पुरिस०-णस०. तिण्णिकसा. वेद०-णाम०-गोद० उक्क० जह० एग०, उक्क० वासपुचत्तंवासं सादि. रेयं० । अणु० णत्थि अंतरं । अवगदवे० सुहुमसंप० घादि०४ उक. जह० एग०, उक० वासपुध० । अणु० जह० एग०, उक्क० छम्मासं० । वेद०-णामा०-गोद० उक० अणु० जह० एग०, उक० छम्मासं० । उवसमसम्मा० घादि०४ उक्क० ओघं । वेद.. णामा०-गोद० उक्क० जह० एग०, उक० वासपुध० सव्वेसिं । अणु० जह० एग०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । एवं णेदव्वं याव अणाहारग ति । एवं उकस्संतरं समत्तं'। २१६. इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त राशिवाले जीवोंका भी अन्तर काल जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और तीन कषायवाले जीवोंमें वेदनीय,नाम और गोत्र इनतीनोंके उत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल वर्षपृथक्त्व तथा कुछ अधिक एक वर्ष है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। तथा अपगतवेदी और सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयत जीवोंमें चार घातिया कोके उत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल वर्ष पृथक्त्व है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल छह मास है। तथा वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें चार घातिया कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका अन्तर ओघके समान है: वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल वर्षपृथक्त्व है और इन सबके अनुत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल सात रात-दिन है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-नारकियोंमें आठों कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव सदा नहीं होते,अतः उनमें जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक काल प्रमाण कहा है। सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीव सदा रहते हैं,अतः उनका अन्तर नहीं होता है। आयु कर्मका बंध केवल आयके अन्त के छह मासमें आठ अपकर्षों में होना संभव होनेसे उसके बन्धक जीव नारकियोंमें सदा नहीं रहते, अतः आयुकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीवोंका अन्तर काल प्रकृति बंध अनुयोगद्वारमें कहे गये प्रकृति बंधके अन्तरकाल के समान कहा है। नारकियोंके अन्तर कालके समान ही अन्य सब मार्गणाओंमें भी अन्तर काल जानना चाहिये। किन्तु इसमें तीन विशेषताएँ हैं। प्रथम तीनों वेदी व तीन कषायवाले जीवोंमें वेदनीय नाम और गोत्रके अनुभागके बंधक जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण काल न होकर स्त्री वेदी, नपुंसक घेदी, तीन कषायवाले और पुरुषवेदी जीवोंमें वर्षपृथक्त्व और साधिक एक वर्ष है, क्योंकि इनमें क्षपकश्रेणी चढ़नेका उत्कृष्ट अन्तर काल उक्त काल प्रमाण है। दूसरी विशेषता अपगतवेदी व सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयत जीवोंमें चार घाति कमों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालकी है। इन दोनों मार्गणाओंमें चार घाति कर्मोंक बन्ध उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले जीवके उस मार्गणाके अन्तिम समयमें होता है। इस प्रकारका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण होनेसे इनमें चार घाति कर्मों के १. ता. प्रतौ एवं उकस्संतरं समसं इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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