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________________ ११६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २५२. तिरिक्खेसु धादि०४-गोद० जह० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखे। अज० सव्वद्धा । सेसाणं ज० अज० सम्बद्धा । एवं किण्ण-णील०-काउ०-अब्भव०असण्णि-अणाहारग० त्ति। मणुसेसु घादि०४ जह० अज० [ओघ]। सेसाणं णिरयोघं । एवं पंचिंदि०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-विभंग०-चक्खु० तेउ०पम्मले०-सण्णि ति। २५३. ओरालि०-ओरालियमि० ओघं । णवरि गोद० तिरिक्खोघं । आमि०सुद०-ओधि० सत्तण्णं क० इथि भंगो । आउ० उक्कस्सभंगो । एवं ओधिदंस०-सम्मादि०'-खइग०-वेदग० । णवरि खइग० आउ० मणुसि भंगो । सेसाणं संखेज्जरासीणं उक्कस्सभंगो । अण्णेसु पदाणं उक्कस्स-जहण्णएसु अमणिदाणं परिमाणेण कालो साधेदव्वो। ____ एवं कालो समत्तो। अंतरपरूवणा २५४. अंतरं दुविधं-जहण्णयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुवि०-ओषे० आदे० । ओघे० घादि०४-आउ० उक० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। २५२. तिर्यश्चोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। शेष कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, असंही और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। मनुष्योंमें चार घातिकर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल ओघके समान है। शेष कर्मोका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। २५३. औदारिककाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ओधके समान काल है। इतनी विशेषता है कि गोत्रकर्मका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में सात कोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। शेष संख्यात संख्यावाली राशियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। अन्य मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और जघन्य काल रूपसे स्वीकृत सब परोंका काल जो नहीं कहा है, वह परिमाणके अनुसार साध लेना चाहिये । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तरप्ररूपणा २५४. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे चार घातिकर्म और आयुकर्मके उत्कृष्ट अनु 1. ता० आ० प्रत्योः सम्मामि० इति पाठः । २ ता. प्रतौ एवं कालो समत्तो इति पाठो नास्ति ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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