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________________ कालपरूत्रणा जह० एग०, उक्क० २५१. णिरएस सत्तण्णं क० उक्कस्तभंगो । आउ० ज० आवलि० असंखे० । श्रज० ज० एग०, उक्क० पलिदो० असं० । एवं सव्वणिरय ०सव्वपंचिंदि ० तिरि० - मणुस ० अपज० देवा यात्र सहस्सार ति सव्वविगलिंदिय - बादरपुढवि०१० - आउ० पज्जत्ता - बादरवणफ दिपत्ते ० पज्ज० - ० - वे उब्विय० - वेउब्वियमि० - उवसम ०सासण० - सम्मामि० । णवरि मणुसअपज्ज० - वेउव्वियमि ०. ० - सासण० - सम्मामि० अज० पगदिबंधकालो' कादव्वो । णवरि सम्मामि० पंचणं कम्माणं श्रज० ज० अंतो०, उक्क० पलिदो ० असंखेज्जदिभागो । २१५ कान सर्वदा है, यह स्पष्ट ही है । यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई उनमें कान सम्बन्धी यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको ओघ के समान कहा है । मात्र इन मार्गणाओं में यह काल अपने-अपने स्वामित्वको ध्यान में रखकर ले आना चाहिए । २५१. नारकियों में सात कर्मोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । आयुकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यश्व, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, सहस्रार कल्प तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंका काल प्रकृति बन्धके कालके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें पाँच कर्मों के अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । विशेषार्थ - नरक में श्रायुकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है । अब यदि कुछ नारकियोंने आयुकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध एक समय किया और दूसरे समय में दूसरे नारकी जघन्य अनुभागबन्ध करने लगे, तो इस प्रकार निरन्तर आयुकर्मको जघन्य अनुभागबन्ध आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक ही होगा। यही कारण है कि यहाँ कम जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आयुकर्मका अजघन्य अनुभागबन्ध एक समयके लिए होकर दूसरे समयमें जघन्य अनुभागबन्ध यदि हो, तो आयुकर्म के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है और यदि कुछ जीवोंने आयुकर्मका अजघन्य अनुभागबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक किया । इसके बाद अन्य जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक आयुकर्मका अनघन्य अनुभागबन्ध करते रहे। इस प्रकार यदि निरन्तर आयुकर्मका बन्ध हो, तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक वह सम्भव है । यही कारण है कि यहाँ आयु कर्म के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें काल सम्बन्धी यह प्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उनका काल सामान्य नारकियोंके समान कहा है । मात्र सान्तर मार्गणाओं में जो विशेषता है, वह अलगसे कही है। आगे भी अन्य मार्गणाओं में अपने-अपने स्वामित्वको ध्यानमें लेकर काल घटित करनेमें सुगमता होगी, इसलिए हम उसका अलग से ऊहापोह नहीं करेंगे । १. ता० प्रतौ बंधकाले इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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