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________________ कालपरूवणा १११ उक्क० पलिदो० असंखें । सत्तमाए सत्तण्णं क० [उक्क०] जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखे० । अणु० सव्वद्धा । आउ० उक्क० जह० एग०, उक० आवलि० असं० । अणु० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असं० । एवं बादरतेउवाउ०पजत्ता । पुढवि०-आउ०. तेउ०-चाउ०-पत्तेगाणं सत्तणं कम्माणं' तिरिक्खोघं । आउ० ओघं । णवरि तेउ०-वाउ० आउ० तिरिक्खोघं। २४२. तिरिक्खेसु अढण्णं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे० । अणु० सम्वद्धा । एवं कम्मइ०-किण्ण०-णील काउ०-अन्भवसि०-असण्णि-अणाहारग त्ति । सव्वपंचिंदि०तिरि० सव्वपदा सत्तमपुढविभंगो । है। सातवीं पृथिवीमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आषलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुस्कृष्ट अनुभागबन्धका काल सर्वदा है। आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके सात कर्मोंका भंग सामान्य तियोंके समान है। आयुकर्मका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें आयुकर्मका भंग सामान्य तिर्यचोंके समान है। विशेषार्थ-नारकियोंमें चार घातिकर्मोके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओषके समान घटित कर लेना चाहिए । तथा यहाँ वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म बन्धकालमें चार घातिकमोंके बन्धकालसे कोई विशेषता न होनेसे यह भी इसी प्रकार जानना चाहिए। अब रहा आयुकर्म सो इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण इसलिए क्योंकि एक नारकीके बाद दूसरे नारकीके यदि निरन्तर आयुकर्मका बन्ध होता रहे, तो उस सब कालका योग पल्यका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण ही होता है। प्रथमादि छह पृथिषियों में यह व्यवस्था अविकल बन जाती है, इसलिए उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। मात्र उनमेंसे मनुष्य अपर्याप्त और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में सात कोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट कालमें विशेषता है। कारण यह है कि ये सान्तर मार्गणाएँ हैं, इनके निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। इसलिए इनमें सदा कर्मोके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सातवीं पृथिवीमें और सब काल तो सामान्य कियाक समान ही है। मात्र आयुकमके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि यहाँ आयुकर्मका बन्ध मिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है और ऐसे जीव आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाले एकके बाद दूसरे असंख्यात हो सकते हैं,अतः यहाँ आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। २४२. तियचोंमें आठ कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल सर्वदा है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, ता. आ. प्रत्योः सत्राणं कम्माणं इति स्थाने भोषपदाणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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