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________________ खेत्तपरूवणा २०५. जहण्णए पगदं । दुवि० ओघे० आदे० । ओघे० घादि४- गोद० जह० अणुभागबंधगा bafs खेत्ते ? लो० असं० । अज० सव्वलो० । वेद० - आउ०- णामा० ८. विशेषार्थ - वर्तमान निवासकी क्षेत्र संज्ञा है । यहाँ उत्कृष्ट और जघन्य अनुभागवालों के भेदसे इसके दो भेद किये गये हैं । चार घातिकर्माका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी, पर्याप्त और साकार उपयोगबालेके उत्कृष्ट संक्लेशके होनेपर होता है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके होता है तथा आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अप्रमत्त संयत के होता है । विचार कर देखनेपर ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अतः यहाँ आठों कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। मूलमें कुछ ऐसी मार्गणाऐं गिनाई हैं जिनमें यह क्षेत्र सम्बन्धी ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है । इसका कारण यह है कि इन सब मार्गणाओं में सामान्यतः यथासम्भव संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय अवस्था सम्भव है और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव जिन परिणामोंसे इन कर्मो का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं, वैसी अवस्था में क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। एकेन्द्रियों में आठों कर्मोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सभी एकेन्द्रिय करते हैं, इसलिए इस अपेक्षा से सब कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धकी अपेक्षा सर्व लोक क्षेत्र कहा है । मात्र आटों कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा कुछ विशेषता है जो इस प्रकार है- एकेन्द्रियोंमें चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यद्यपि बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त ही करते हैं, परन्तु इस योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम मारणान्तिक समुद्धात के समय भी सम्भव हैं और मारणान्तिक समुद्धातके समय इन जीवोंका सर्व लोक क्षेत्र पाया जाता है। अतः चार घातिकर्मो के उत्कृष्ट अनुभागबन्ध की अपेक्षा सव लोक क्षेत्र कहा है । अब रहे चार घातिकर्म सो उनमें से वेदनीय और नामकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यद्यपि वादर एकेन्द्रिय पर्याप्त ही करते हैं, परन्तु इन कर्मो का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे होता है और ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होता है। अतः इन दोनों कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमारण कहा है। आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध बादर एकेन्द्रिय जीव करते हुए भी एक तो आयुकर्मका बन्धकाल थोड़ा है, दूसरे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध बहुत ही स्वल्पजीव करते हैं, इसलिए इन जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । तथा गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, वादर जलकायिक पर्याप्त और वादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव ही करते हैं और सर्वविशुद्ध अवस्था में इनका क्षेत्र लोक असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। अतः गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा यह क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अप यति जीवों में कर्म में एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा जो विशेषता कही है उसका कारण यह है कि आयुकर्मका बन्ध मारणान्तिक समुद्धात के समय नहीं होता और उपपाद पद व मारणान्तिक पदको छोड़कर इन जीवोंका क्षेत्र अधिक से अधिक लोकके संख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए इनमें आयुकर्म के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा वह लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । इस प्रकार यहाँ जिस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट क्षेत्रका विचार कर वह घटित करके बतलाया गया है, उसी प्रकार आगे जिन मार्गणाओं में उस क्षेत्रका निर्देश किया है, उसका विचार कर लेना चाहिए । सब विशेषताएँ बुद्धिगम्य होनेसे यहाँ हमने उनका विचार नहीं किया है । २०५. जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रघसे चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण क्षेत्र है । अजवन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । वेदनीय, १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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