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________________ २ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे असंखेन्जदिभागो। अणुक्क० असंखेज्जा भागा। सेसाणं संखेंज्जजीविगाणं उक्क० संखेंज्जदिभागो। अणुक्क० संखेंज्जा भागा। १८८. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० घादि०४-गोद० जह० सव्व० केव० १ अणंतभागो। अज० अणंता भागा' । वेद०-आउ०-णामा० जह० असं. खेंजदिभागो। अज० असंखेंज्जा भागा'। एवं तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०ओरालियमि०-कम्मइ०-णस०-कोभादि०४-मदि०-सुद०-असंजद०-अचक्खुदं०तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असण्णि-आहार०-अणाहारग ति । णवरि कम्मइ०-अणाहारग० आउ० णस्थि । १८९. एइंदिएसु [ सत्तण्णं कम्माणं जह० अणु० असंखे । अज० असंखेजा भागा। ] गोद० ओघं। एवं वणप्फदि'-णियोदाणं । णवरि गोदं णामभंगो। सेसाणं सव्वेसि संखेज्ज०-असंखेज्जजीविगाणं उकस्सभंगो। णवरि अवगदवे०-सुहुमसंप० अज० अत्थदो विसेसो' जाणिदव्यो। एवं भागाभागं समत्तं । असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। शेष संख्यात संख्यावाली मार्गणा ओंमें उत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीव संख्यातवें भाग एमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बंधक जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। १८८. जघन्यका प्रकरण है। इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे चार घातिकर्म और गोत्र कर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें आयु कर्मका बन्न नहीं होता। १८६. एकेन्द्रियोंमें सात कर्मों के जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । गोत्रकर्मका भंग ओघके समान है। इसीप्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें गोत्रकर्मका भंग नामकर्मके समान है। शेष सब संख्यात और असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंमें आठों कोका भंग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अजघन्य अनुभाग बन्धकी अपेक्षा वास्तव में विशेष जानना चाहिए। इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। १ ता० प्रतौ भागो ( गा ) इति पाठः । २ ता० प्रतौ अज० असंखेजा भागा अज० असंखेजाभा०(1) प्रा. प्रतौ अज्ज० असंखेज्जदिभागा इति पाठः । ३ ता० प्रतौ श्रोघे इति पाटः । ४ ता. प्रती वणादि इति स्थाने सर्वत्र 'वणफदिः अथवा वणफति इति पाठः । ५ ता० प्रतौ सुहमसंज (प.) अज. अथदो विसेसा इति पाठः। ६ ता० प्रती एवं भागाभागं समत्त इति पाटो नास्ति । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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