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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १८३. मणुसअपज्ज-वेउव्वियमि०-आहार-आहारमि०-अवगदवे०-सुहुमसं०उवसम०-सासण-सम्मामिच्छा० उक्क० अणुक्क० अभंगो। एइंदिय-बादर-सुहुम० पज्जत्तापज्जत्त० काए सव्ववादरअपज्जत्त-सव्वसुहुमपज्जत्तापज्जत्त-सव्ववणप्फदि०. णियोद०-बादर पत्ते०अपज्जत्त आउ० ओघं । सत्तण्णं कम्माणं उक्क० अणुक्क० अत्थि बंधगा य अबंधगा य । सेसाणं सव्वेसिं सत्तण्णं कम्माणं उक्क० तिण्णिभंगो । अणुक्कस्सा पि पडिलोमेण तिण्णि भंगा। आउ० उक० अणुक० तिण्णि भंगा। एवं उक्कस्सभंगविचयो समत्तो। १८४. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० तत्थ इमं अट्ठपदं उकस्सभंगो। घादि०४-गोदस्स जह• अज० उक्कस्सभंगो। वेदणी०-आउ०-णामा० जह० अज० अस्थि बंधगा य अबंधगा य । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०ओरालियमि०-कम्मइ०-णस०-कोधादि० ४-मदि०-सुद० असंज० अचक्खु०-तिण्णिले०भवसि०-अब्भवसि-मिच्छादि०-असण्णि-आहार०-अणाहारग ति। णवरि कम्मइ० अणाहार० आउ० णत्थि । १८५. एइंदि०बादर०बादरपज्जत्ता० गोद० ओघं। सेसाणं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । बादर०अपज्जत्त०-सव्वसुहुमाणं च अट्टणं कम्माणं जह• अज० अस्थि १८३. मनुष्य अपर्याप्तक, वैक्रियिक, मिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्म साम्परायसंवत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा आठ भङ्ग हैं। एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें तथा पाँचों स्थावर कायिकोंमें सब बादर अपर्यात, सब सूक्ष्म और उनके बादर और सूक्ष्म पर्याप्त- अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक, निगोद जीव और बादर वनस्पतिकायिक,प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंमें आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है। सात कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक नाना जीव हैं और अबन्धक नाना जीव हैं। शेष सब मार्गणाओंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धके तीन भङ्ग हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धके भी प्रतिलोमक्रमसे तीन भङ्ग है। आयु कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट पदकी अपेक्षा तीन भङ्ग हैं। इसप्रकार उत्कृष्ट भङ्गविचय समाप्त हुआ। १८४. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा वहाँपर पर यह अर्थ पद उत्कृष्टके समान जानना चाहिये । चार घाति कर्म और गोत्रकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा भंगविचय उत्कृष्टके समान है। वेदनीय, आय और नामकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभाग बन्धके नाना बन्धक जीव हैं और नाना अबन्धक जीव हैं। इसप्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्यकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। १५. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें गोत्रकर्म का भङ्ग ओघके समान है। शेष कर्मों के नाना बन्धक जीव हैं और नाना प्रबन्धक जीव हैं । बादर एकेन्द्रिय अपयप्ति और सब सूक्ष्म जीवोंमें आठों कर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके नाना बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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