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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वेउब्धियमि० आहार-आहारमि० कम्मइ०-मदि०-सुद० विभंग-परिहार०-संजदासंजद - असंज-तिण्णिले० अब्भवसि०-वेदग०-सासण-सम्मामि० असण्णि-अणाहारग त्ति । पढमादि याव छडि त्ति तं चेव । णवरि गोद० वेदणीयभंगो। तिरिक्ख-मणुसअपज्ज० देवा याव उवरिमगेवजा त्ति सव्वविगलिंदि०-पंचिंदि०-तसअपज०-सव्वपुढवि०-आउ०वणप्फदि०-बादर पत्तेय०-णियोद० एवं चेव । मणुस०३ घादीणं ओघं । सेसं विदियपुढविभंगो। १७९. सव्वतेउ०-वाउ० णाणा० जह० जह० अणु० बं० तिण्णं घादीणं गोदस्स च णि बं० णि तं तु छट्ठाणपदिदं० । सेसं अपज्जत्तभंगो।। १८०, इत्थि० णाणा० जह० बं० तिणि घादीणं णि० बं० णि० जहण्णा० । वेद०णामा-गो० णि० बं० णि. अज० अणंतगु० । सेसं देवोघं । एवं पुरिस० । णवूस० पादि०४ इत्थिभंगो । सेसं णिरयोघं । एवं णqसगभंगो कोध-माण-माय-सामाइ०-छेदो० । १८१. अवगद० णाणा० जह० बं० दसणा०-अंतराइ० णि बं० णि. जह० । वेद०-णामा-गो० णि० बं० णि. अज० अणंतगुणब्भहियं० । मोह० अबंध० । एवं औदारिक काययोगो, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धि संयत, संयतासंयत, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । पहली पृथिवीसे लेकर छठवीं तकके नारकियोंमें वही भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें गोत्रकर्मका भंग वेदनीयके समान है। तिथंच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देवोंसे लेकर उपरिम |वेयक तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, उस अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और निगोद जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये । मनुष्यत्रिकमें चार घातिकमोंका भंग ओघके समान है । शेष कर्मोंका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। १७६. सब अग्निकायिक और सब वायुकायिक जीवोंमें ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन घातिकर्म और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह छह स्थान पतित अनुभागका बन्ध करता है । शेष भंग अपर्याप्तकोंके समान है। १८०. स्त्रीवेदी जीवोंमें ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन घातिकर्मोंका नियमसे बन्ध करता है । जो नियमसे जघन्य अनुभागका बन्ध करता है । वेदनीय, नाम, और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है। जो नियमसे अजघन्य अनन्तगुणे अधिक अनुभागका बन्ध करता है। शेष भंग सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंमें जानना चाहिये । नपुंसकवेदी जीवोंमें चार घातिकर्मोंका भंग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। शेष भंग सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके समान क्रोध कषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले, सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके जानना चाहिये ।। २८१. अपगतवेदी जीवोंमें ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका नियमसे बन्ध करता है। जो नियमसे जघन्य अनुभागका बन्ध करता है। वेदनीय नाम और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है। जो नियमसे अजयन्य अनन्तगुणे अधिक अनुभागका बन्ध करता है। वह मोहनीयका बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार दर्शनावरण और अन्तरायकर्मकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये । वेदनीय कर्म के जवन्य अनुभागका बन्ध करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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