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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १७५. सुहुमसं० णाणावर० उक्क. बं० दसणा०-अंतरा. णि. बं. णिय० उक्कस्स० । वेद०-णामा-गोदा० णि० बं० णि० अणु० अणंतगुणहीणं० । एवं दोणं घादीणं । वेद० उक्क० ६० तिण्णं घादीणं णि बं० णि. अणु० अणंतगुणहीणं० । णामा-गोदा०णि.बं.णि उक्क० । एवं णामा-गोदाणं। १७६. सेसाणं सव्वेसि णिरयभंगो। णवरि तेउ-वाऊणं णाणावर० उक्क० बं० तिण्णं घादीणं गोद० णि० बं० तं तु० । वेद०-णामा० णि० बं० णि० अणु० अणंतगुणहीणं० । आउ० अपंधगो । एवं तिण्णं घादीणं गोदस्स च । वेद० उक० बं० घादीणं गोदस्स च णि० ब० णि० अणंतगुणहीणं० । णाम० णिय० तं तु छट्ठाणपदिदं बंधदि। एवं उक्कस्ससण्णियासं समत्तं १७७. जहण्णए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे०। ओघे० णाणावर० जह० अणुभागं बंधंतो दंसणा-अंतरा० णि. बं० णि० जहणं । वेद०-णामा-गोदाणं णि. बं० णि अजहण्णं अणंतगुणन्भहियं बंधदि । मोहाउगस्स अबंधगो। एवं दसणा०-अंतराइ । वेद० जह० बं० धादि०४-गोद० णि० बं० णि० अज० अणंतगुणब्भहियं० । आउ. १७५. सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका नियमसे बन्ध करता है, जो नियम से उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है, जो नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणे हीन अनुभागका बन्ध करता है । इसी प्रकार दो घातिकर्मोकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिये। वेदनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन घाति कोका नियमसे बन्ध करता है, जो नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणे हीन अनुभागका बन्ध करता है। नाम और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है । जो नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार नाम और गोत्रकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिये। १७६. शेष सब मार्गणाओंमें नारकियोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन घातिकर्म और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है, जो नियमसे छह स्थान पतित अनुभागका बन्ध करता है। वेदनीय और नामकर्मका नियमसे वध करता है, जो नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणे हीन अनुभागका बन्ध करता है । वह आयुकर्मका बन्ध नहीं करता । इसी प्रकार तीन घातिकर्म और गोत्रकर्मकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिये । वेदनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार घातिकर्म और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है, जो नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणे हीन अनुभागका बन्ध करता है । नामकर्मका नियमसे बन्ध करता है किन्तु वह छह स्थान पतित अनुभागका बन्ध करता है। इस प्रकार उत्कृष्ट सन्निकर्ष समाप्त हुआ। १७७. जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश। ओघसे ज्ञानावरणके अघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दर्शनावरण और अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य अनुभागका बन्ध करता है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अजघन्य अनन्तगुणे अधिक अनुभागका बन्ध करता है । वह मोहनीय और आयुकर्मका बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार दर्शनावरण और अन्तरायकर्मकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिये । वेदनीय कर्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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