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________________ सम्पादकीय प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन-संशोधन में टीका की चार प्रतियों का सम्पूर्ण उपयोग किया गया है। इन चार प्रतियों की संज्ञा A. B. C. और D. दी गई है । इसके अतिरिक्त एक टीका की प्रति का भी उपयोग कहीं कहीं किया गया है । टीका की इस पांचवीं प्रति की संज्ञा E दी गई है। टीका की इन पांच प्रतियों के सिवाय 'मूलशुद्धिप्रकरण' मूल की एक प्रति का भी यहाँ सम्पूर्ण उपयोग किया गया है। यह प्रति पाटण के भण्डार की प्रकीर्णक संग्रह की ताडपत्रीय प्रति है। उसमें अनेक प्रकरणों के साथ मूलशुद्धिप्रकरण भी दिया गया है। मूल की इस प्रति की संज्ञा भी E ही दी गई है । अतः जहाँ मूल गाथा के पाठभेद में E संज्ञा हो वहाँ उस पाठभेद को मूल की ताडपत्रीय प्रति का समझना चाहिए । तथा टीका के पाठभेद में जहाँ E संज्ञा हो वहाँ उस पाठभेद को टीका की E प्रति का पाठभेद समझा जाय । उक्त प्रतियों का परिचय इसप्रकार हैA संज्ञक प्रति यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर (पाटण) में स्थित श्री संघ जैन ज्ञानभण्डार की है और यह कागद पर लिखी हुई है। सूची में इसका क्रमाङ्क १४१५ है । २६४ पत्रात्मक इस प्रति की लम्बाई चौड़ाई १०x४॥ इंच प्रमाण है। प्रथम पत्र की पहली और अन्तिम पत्रकी दूसरी पृष्ठि कोरी है। प्रत्येक पत्रकी प्रत्येक पृष्ठि में १५ पंक्तियाँ हैं । और प्रत्येक पंक्ति में ६० अक्षर हैं प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में कोरा भाग रखकर शोभन बनाया गया है। इसकी स्थिति मध्यम और लिपि सुन्दर है। इस प्रति के अन्त में लेखक की प्रशस्ति-पुष्पिका नहीं है । अनुमानतः इस प्रति का लेखनसमय विक्रमीय १७ वीं सदो का होना चाहिए। B संज्ञक प्रति - यह प्रति भी उपर्युक्त ज्ञानमन्दिर में स्थित श्री वाडीपार्श्वनाथ जैन ज्ञानभण्डार की है और यह कागद पर लिखी हुई है । सूचि में इसका क्रमांक ७०७३ है । २७५ पत्रात्मक इस प्रति की लम्बाई चौड़ाई १०॥४४॥ इंच है । प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में १५ पंक्तियाँ हैं । और प्रत्येक पंक्ति में ५६ अक्षर हैं। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में कोरा भाग रखकर उसके मध्य में लालरंग का गोलाकार शोभन बनाया है । उसी तरह पत्र की दूसरी पृष्ठि के दोनों तरफ मार्जिन के मध्यभाग में लालरंग का गोलाकार शोभन किया हुआ है। इसकी लिपि सुन्दर और स्थिति मध्यम है । अन्त में लेखक की प्रशस्तिपुष्पिका नहीं है। अनुमानतः इसका लेखनसमय विक्रम का १५वाँ शतक होना चाहिए। C संज्ञक प्रति ___ यह प्रति श्री कच्छी दशा ओसवाल जैन महाजन हस्तक के अनन्तनाथजी महाराज के मन्दिर (मुंबई) में रहे हुए ज्ञान भण्डार की है। भण्डार की सूचि में इसका नम्बर १४२८ है। पुरातत्त्वाचार्य मनिजी श्री जिनविजयजी ने वि. सं. २००१ की साल में यह प्रति उपयोग करने के लिए मुझे दी थी। इसके कुल पत्र ३८४ हैं। ३८३ ३ पत्र की दूसरी पृष्ठि की पांचवीं पंक्ति में मूलशुद्धिप्रकरणटीका की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001387
Book TitleMulshuddhiprakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year
Total Pages248
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size21 MB
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