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________________ विविध प्राकृत भाषाएँ ३७ (१८) जिन शब्दों के अन्त में 'अय' आता है उन्हें भी 'आ' (अक-अयअअ-आ) में बदला जाने लगा : गवेसा-गवेसअ (गवेषक), जिणाला-जिणालअ (जिनालय), भडाराभडारअ (भडारय-भट्टारक) (१९) कभी कभी 'अ' कारान्त सिवाय अन्य स्वरान्त शब्दों को भी 'अ' कारान्त बनाया जाने लगाः (i) पसव (पशु) (ii) स्वार्थे 'अ', 'य' (क) जोडकर : हसंतिय (हसन्ती) (२०) कई नये नये सार्वनामिक रूपों का प्रादुर्भाव हुआ : हउं (अहम् ), महारउ (मम), पइं ( त्वाम्, त्वया, त्वयि) तुम्हारउ (युष्माकम्), अम्हारउ (अस्माकम्), एहु (एषः), कवण (किम्), इत्यादि । __(२१) स्वार्थिक प्रत्यय 'ड' और 'ल' का प्रयोग बढ़ने लगा : रुक्खडु (वृक्षः), गोरडु (गौरः), देसडा ( देशः), निद्दडी (निद्रा), जेवडु (यावत्), तेवडु ( तावत्) सरीरडउ (शरीरकः), वंकुडउ (वक्रकः), संदेसडउ ( संदेशकः), एकल (एक्क), पत्तल (पत्र), अग्गल (अग्र), नग्गल (नग्न) (२२) अनुरणनात्मक शब्दों की वृद्धि होने लगी : गुमुगुमुगुमंत, टणटणटणंत, ललललंति, धगधगधगंति, जिगिजिगिजिगंत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001385
Book TitlePrakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages144
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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